लग्न मुहूर्त

आज हम जानेंगे ज्योतिष के कुछ मुहूर्त और ज्योतिष के उत्कृष्ट योग के बारे मे ईसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करे ताकी सब को उपयोगी हो सके वास्तुमुहूर्तविचार-: मासशुद्धिविचार-: चैत्रे शोककरं गृहादिरचनं स्यान्माधवेऽर्थप्रदं ज्येष्ठे मृत्युकरं शुचौ पशुहरं तद्वृद्धिदं श्रावणे। शून्यं भाद्रपदेऽश्विने कलिकरं भृत्यक्षयं कार्तिके धान्यं मार्गसहस्ययोर्दहनभीर्माघे श्रियै फाल्गुने।। चैत्र मासमें नया घर का बनाना शोकदायक हैं। वैशाख महिने में धनलाभ करता हैं। ज्येष्ठ में मृत्यु का भय उत्पन्न करता हैं। आषाढमें पशुका नाश, श्रावण में पशुवृद्धि (मिल्कत) करता हैं। भाद्रपद में शून्य, आश्विनमें क्लेश हैं। कार्तिकमें नौकरोंका नाश करता हैं। मार्गशीर्ष में धान्य का लाभ करता हैं। पौष में भी धान्य प्राप्ति करता हैं। माघ में अग्निका भय और फाल्गुन मास में लक्ष्मीका लाभ करता हैं विषकन्यायोगा-: मन्दाश्र्लेषाद्वितीया यदि तदनु कुजे सप्तमीवारुणर्क्षे द्वादश्यां च द्विदैवं दिनमणिदिवसे यञ्जनिः सा विषाख्या। धर्मस्थो भूमिसूनुस्तनुसदनगतःसूर्यसूनुस्तदानीं मार्तण्डः सूनुयातो यदि जनिसमये सा कुमारी विषाख्या।। पहिला योग- : शनिवार, आश्लेषा नक्षत्र और द्वितीया को कन्या का जन्म हो तो उसको विषकन्या समझना, दूसरा योग- : मंगलवार, शततारका नक्षत्र और सप्तमी को जो कन्या का जन्म होवे तो विषकन्या समझना, तीसरा योग- : रविवार, विशाखा नक्षत्र और द्वादशी को जो कन्या का जन्म होवे तो विषकन्या समझना, चौथा योग- : जन्म कुंडली में मंगल नवमस्थानमें हो, शनि लग्न में हो और सूर्य पंचम स्थान में हो तो वह विषकन्या योग जानना । विषकन्यायोगाः। भौजगें कृतिकायां शतभिषजि तथा सूर्यमन्दारवारे भद्रासंज्ञे तिथौ या किल जननमियात्सा कुमारी विषाख्या । लग्नस्थौ सौम्यखेटावशुभगगनगश्चैक आस्ते ततो द्वौ वैरिक्षैत्रानुयातौ यदि जनुषि तदा सा कुमारी विषाख्या।। पहलायोग-: आश्लेषा, कृतिका और शततारका नक्षत्र में रवि, शनि और मंगलवारको द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी को जो कन्या का जन्म होवे तो वह विषकन्या समझना, (उपरोक्त नक्षत्र, वार तिथियों के क्रम के अनुसार दूसरे तीन योग होते हैं) दूसरा योग- : आश्लेषा नक्षत्र, रविवार और द्वितीया तिथिको जो कन्या जन्मे उसको विषकन्या जानना, तीसरा योग-: कृतिका नक्षत्र, शनिवार और सप्तमी के दिन जो कन्या जन्मे तो वह भी विषकन्या कहलाई जाती हैं चौथा योग- : शततारका नक्षत्र, मंगल वार और द्वादशी को जो कन्या जन्मे तो उसको विषकन्या कहते हैं, पाँचवा योग- : जन्म समय में दो शुभग्रह लग्न में हों, एक पापग्रह दशम स्थानमें हो और दो पापग्रह छठे स्थानमें हो तो वह विषकन्या जानना । गृहारंभे भूमिशयनज्ञानम् प्रद्योतनात्पञ्चनगाकंसूर्यनवेन्दुषड- विंशमितानि भानि । शेते धरा नैव गृहं विधेयं तडा गवापी- खननं न शस्तम् ।। सूर्य के महानक्षत्र से गिनते हुए ५-७-९-१२-१९-२६ ये चन्द्र नक्षत्र हो तो पृथ्वीशयन जानना। इस पृथ्वीशयन में गृहारंभ, वाव, कूवाँ, तालाव तथा बावड़ी आदि नहीं खोदना चाहिए ।। गृहारंभे भूमिपरीक्षा-: भूमौ मध्ये खनेद्गर्तं हस्तमात्रं समंततः। तच्छूभ्रं पूरयेत्तेन नृपांसुना विचक्षणः। वर्द्धमाने च वृद्धिः स्याद्धीने हीनं समे समम्।। घर बनाने की भूमि में एक हाथ लम्बा तथा चौड़ा गड्डा बनाना और उसमें से मिट्टी पत्थर निकालकर अलग रखना, खात के बाद फिर उसी मिट्टी और पत्थरोंसे उस गड्डेको भर देना, यदि मिट्टी बढे तो अच्छा फल देता हैं । यदि कम पडे तो हानि होती हैं । यदि बराबर हो तो सम भूमि जानना। कमी हो तो उस भूमि में कभी भी घर नहीं बनाना । विषभंगयोगः। लग्नादिन्दोःशुभो वा यदि मदनपतिर्द्यूनयायी विशाख्यादोषं चैवानपत्यं तदनु च नियतं हन्ति वैध्यवदोषम् । इत्थं ज्ञेयं ग्रहज्ञैः सुमतिभिरखिलं योगजातं ग्रहाणामार्यैर्यानुमत्या मतमिह गदितं जातके जातकानाम्।। जन्मकुण्डली में लग्न से अथवा चन्द्रमा से सप्तमेश अथवा शुभ ग्रह सप्तमस्थान में हों तो विषकन्या सम्बन्धी दोषों को तथा वन्ध्या (बांझ) होनेसे अथवा (विधवा) वैध्यवपन को नाश करता हैं, इस प्रकार इस जातकषास्त्र में श्रेष्ठ ज्योतिषियों की आज्ञासे उत्तम बुद्धिवाले ज्योतिषियों ने जातक शास्त्र में कहा हुआ सम्पूर्ण ग्रहों का योगों से उत्पन्न हुआ फल समझना ।। गृहारंभखातदिशाविचारः। हरियुवतितुल यां खन्यते चाग्निकोणे अलिधनमकरार्के ईशकोणे वदन्ति। घटशफरतथाजे वायु कोणेपि खातं वृषमिथुनकुलीरे नैर्ऋते खातमाहुः।। सिंह, कन्या, तुला संक्रान्ति में अग्निकोण में वृश्चिक, धन और मकर संक्रान्ति में ईशानकोण में कुंभ, मीन, मेष संक्रान्ति में वायव्य कोण में और वृषभ, मिथुन कर्क संक्रान्ति में नैऋत्य कोण में खात मुहूर्त करना श्रेष्ठ हैं।। गृहारंभे निन्दितभूमयः। यज्ञस्थानैः श्मशानैश्च देवतायतनाश्रमैः। वल्मीकैश्चैत्यवृक्षैश्च युता भूमिर्विगर्हिता।। यज्ञस्थान, श्मशान, देवस्थान,आश्रम, बिल, तथा निष्फल पेड़ोवाली भूमि पर कभी भी घर नहीं बाँधना चाहिए।। नागशिरोविचारः। भाद्रत्रये शिरः प्राच्यां याम्यां मार्गत्रये शिरः। फाल्गुनत्रितये पश्चात् शिरो ज्येष्ठत्रये ह्युदक् ।। भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक इन तीन महीनोंमें पूर्व दिशामें, मार्गशीर्ष, पौष, माघ ये तीन महीनों में दक्षिण दिशा में फागुन, चैत्र, वैशाख इन तीन महीनों में पश्चिम दिशा में और जेठ, आषाढ, और श्रावण इन तीन महीनों में शेष नाग का सिर उत्तर दिशा में रहता हैं। शेषनाग के मस्तक पर खात मुहूर्त करने से मृत्यु तुल्य कष्ट होते हैं । सुनफादियोगा:- रविवर्ज्जं द्वादशगैरनफा चन्द्राद् द्वितीयगैः सुनफा। उभयस्थितैर्दुरुधरा केमद्रुमसंज्ञको योऽन्यः।। जिसकी जन्मकुंडली में सूर्य को छोडकर और कोई ग्रह चन्द्रमा से बारहवें स्थान में हो तो *अनफा,*द्वितीय स्थान में हो तो *सुनफा,* यदि दोनों(द्वितीय-द्वादश) स्थान में हो तो *दुरुधरा,* तथा इन (द्वितीय-द्वादश) दोनों में किसी में ग्रह ना हो तो *केमद्रुम* नामक योग होता है। उत्पन्नभोगसुखमुग्धनवाहनाढ्यस्त्यागान्वितो दुरुधराप्रभवः सुभृत्यः। केमद्रुमे मलिनदुःखितनीचनिःस्वः प्रेष्यश्च तत्र नृपतेरपि वंशजातः। दुरुधरा में उत्पन्न जातक उत्पन्न हुए भोगों या प्राप्त किये हुए भोगों के भोगने से सुखी रहनेवाला, धन तथा वाहनों से युक्त, दानी और अच्छे नोकरो वाला होता है, एवं केमद्रुम योग में उत्पन्न मनुष्य मलिन प्रकृति वाला, नीच स्वभाववाला, दरिद्र और दूत कर्म करनेवाला, अच्छे वंश का भी हो तो भी एसा ही होता है। पुनः केमद्रुमयोगभंग-: कुमुदगहनबन्धुर्वीक्षमाणः समस्तैर्गगनगृहनिवासैर्दीर्घजीवी स जातः। फलमशुभसमुत्थं यच्च केमद्रुमोक्तं स भवति नरनाथः सार्वभौमो जितारिः।। जिसकी कुंडली में केमद्रुम योग हो परन्तु चन्द्रमा सभी ग्रहों से देखें जाते हो तो जातक दिर्घायु होता है, तथा केमद्रुम योग में जो अशुभ फल कहें गये है वे नहीं होते है, और वह शत्रुजन को जीतनेवाला होता है। केमद्रुमयोगफलानि-: केमद्रुमे भवति पुत्रकलत्रहीनो देशान्तरे व्रजति दुःखसमाभितप्तः। ज्ञातिप्रमोदनिरतो मुखरः कुचैलो नीचः सदा भवति भीतियुतश्चिरायुः।। जिसकी कुंडली में केमद्रुम योग हो वह जातक पुत्र, स्त्री से रहित, निरन्तर दुःख से सन्तप्त होकर देशान्तरो में घुमनेवाला, जातिवर्ग समबन्धी आनन्द में लीन रहनेवाला, गाली गलौज करनेवाला या हर एक कार्यों में अग्रसर रहनेवाला, कुत्सित वस्त्र धारण करनेवाला और दिर्घायु होता है। केमद्रुमयोगभंग-: हित्वार्कं सुनफानफा दुरुधरा स्वान्त्योभयस्थैर्गेहैः शीतांशोः कथितोऽन्यथा तु बहुभीः केमद्रुमोऽन्यैस्त्वसौ। केन्द्रे शीतकरेऽथवा ग्रहयुते केमद्रुमो नेष्यते केचित्केन्द्रनवांशकेष्विति वदन्त्युक्तिः प्रसिद्धा न ते।। सूर्य को छोडकर चन्द्रमा से दूसरे स्थान में कोई भी ग्रह हो तो सुनफा, बारहवें स्थान में हो तो अनफा, एवं दूसरे बारहवें इन दोनों स्थान पर होवे तो दुरुधरा योग, इसी प्रकार चन्द्रमा से (द्वितीय-द्वादश) इन दोनों में किसी में ग्रह ना हो तो केमद्रुम नाम का योग होता है, ऐसा पुर्वाचार्यो ने कहाँ है, परन्तु चन्द्रमा केन्द्र स्थान में हो या कोई भी ग्रह हो तो केमद्रुम योग नहीं होता है। इसमें कई आचार्यो का मत है कि चन्द्रमा केन्द्रिय राशियों के नवांश में भी हो तब भी केमद्रुम योग नहीं होता है । चिपकली पातन-: (चिपकली का अंग पर गिरना) ब्रह्मरंध्र= राज्यप्राप्ति ललाट=स्थानलाभ कान= भूषणप्राप्ति नेत्र=प्रियदर्शन नासिका=सुगंध मुख=मिष्टान्न गाल=सुख दाढी=महाभय भ्रूकुटि=विग्रह कंठ=दुःख पीठ=कलह पीठ की दाँयी और=सुख पीठ की बाँयी और=रोग दक्षिण कंधा=विजय वाम कंधा=शुभभय दक्षिण हाथ कोहनी मणिबंध=धनक्षय दाँहिना पहोंचा=द्रव्यलाभ दाँहिना पहोंचा के पीछे= द्रव्यलाभ बाँये हाथ की कोहनी और मणिबंध= धनक्षय बाँया पहोंचा= हानि ह्रदय-छाती= राजसन्मान दक्षिण-छाती= सौभाग्य दक्षिण-पहेलु= भोगप्राप्ति बाँयी-छाती= यश बाँया-पहेलु= भोगप्राप्ति वामकुक्षी= शूलपीडा दक्षिण कुक्षी= पुत्रप्राप्ति पेट= पुत्रप्राप्ति दक्षिण कटी= वस्त्रलाभ बाँयी कटी= सुखनाश नाभि= मनोरथसिद्धि दक्षिण जानु= सुख बाँया जानु= पशुनाश दक्षिण पींडली= सुख बाँयी पींडली= क्लेश दाँया घुटन= अर्थवृद्धि बाँया घुटन= स्त्रीवियोग पैरका आगे का हिस्सा= सुखद् पैरका पिछला हिस्सा= दुखद् पैरकी बाँये भाग में= हानि पुनःकेमद्रुमयोगभंग-: पूर्णः शशी यदि भवेच्छुभसंस्थितो वा सौम्यामरेज्यभृगुनन्दसंयुतश्च। पुत्रार्थसौख्यजनकः कथितो मुनीन्द्रैः केमद्रुमे भवति मंगलसुप्रसिद्धः।। यदि पूर्ण बली चन्द्रमा शुभ स्थान ( वृषभ, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर,मीन) मैं हो अथवा बुध, बृहस्पति एवं शुक्र से युक्त हो तो केमद्रुम योग में भी उत्पन्न जातक को पुत्र-धन सुख देनेवाला और मंगल-कामना एवं प्रसिद्धि(ख्याति) होती है ।। अधिकक्षयमासविचारः। असंक्रान्तिमासोऽधिमासः स्फुटं स्याब्दिसंक्रान्तिमासःक्षयाख्यः कदाचित् । क्षयः कार्तिकादित्रये नान्यतः स्यातदा वर्षमध्येऽधिमासद्वयं च ।। जिस मास में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक कोई सूर्य संक्रान्ति न आती हो उसे अधिक मास कहा जाता है। और जिस मास में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक दो सूर्य संक्रान्तियाँ आती हो तो उस मास को क्षय मास कहते हैं । क्षय मास कार्तिक, मार्गशिर्ष और पौष महिनों में ही आता है। जिस वर्ष में क्षय मास आता है उस वर्ष में अधिक मास दो आते है ।। ज्येष्ठानक्षत्रजातफलम्। ज्येष्ठादौ जननीमाता द्वितीये जननी पिता। तृतीये जननीभ्राता स्वयंमाता चतुर्थके।। आत्मानं पञ्चमे हन्ति षष्ठे गोत्रक्षयो भवेत्। सप्तमे चोभयकूलं ज्येष्ठभ्रातरमष्टमे। नवमे श्वशुरं हन्ति सर्वें हन्ति दशांशके।। ज्येष्ठा की पहली छः घडीयों में जन्म हो तो नानी मरेगी, दूसरी छः घडीयों में जन्म हो तो नाना मरेगा, तीसरी छः घडीयों में जन्म हो तो मामा मरेगा, चौथी छः घडीयों में माता का देहान्त होगा, पाँचवी छः घडीयों में स्वयं का निधन होगा, छठ्ठी छः घडीयों में गौत्र का क्षय होता हैं, सातवी छः घडीयों में दोनों कुलों का नाश, आठवीं छः घडीयों में बडा भाई मरेगा, नौंवी छः घडीयों में जन्म हो तो ससुर मरेगा और दसवीं छः घडीयों में जन्म हो तो सबका नाश होता हैं।। मूलफलविचारे चरणवशेन फलविचारः। आश्लेषाप्रथमः पादः पादो मूलान्तिमस्तथा। विशाखाज्येष्ठयोराद्यास्त्रयः पादाः शुभावहाः।। आश्लेषा नक्षत्र का प्रथम चरण, मूल नक्षत्र का अंतिम चरण, विशाखा तथा ज्येष्ठा के आदि से तीन चरण शुभ फल देते हैं।। मूलनक्षत्रादिदोषविचारः। नवमासं सार्पदोषो मूलदोषोऽष्टवर्षकम्। ज्यैष्ठो मासान्पञ्चदश तावद्दर्शनवर्जनम्।। आश्लेषा नक्षत्र का दोष नौ महीने तक, मूल नक्षत्र का आठ वर्ष तक और ज्येष्ठा नक्षत्र का १५ मास तक होता हैं। अतः तब तक बालक का मुँह देखना नहीं।। चरणवशेन मूलजातफलम्। मूलाद्यंशे पितुर्नाशो द्वितीये मातुरेव च्। तृतिये धनधान्यानां नाशस्तुर्ये धनागमः।। मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में पुत्र और कन्या का जन्म हो तो पिता का नाश, दूसरे चरण में बालक का जन्म हो तो माता का नाश, तीसरे चरण में बालक का जन्म हो तो धनधान्य का नाश तथा चौथे चरण में बालक का जन्म हो तो शुभ फल देता हैं।। विस्तृत मार्गदर्शन हेतु संपर्क करें। आचार्य पंडित मयंक जोशी

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