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2024-11-08

देवप्रबोधिनी एकादशी तुलसी शालिग्राम विवाह

भगवान विष्णु के स्वरुप शालिग्राम और माता तुलसी के मिलन का पर्व तुलसी विवाह हिन्दू पंचांग के अनुसार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की उदयव्यापिनी एकादशी तिथि तथा कुछ प्रान्तों में कार्तिक शुक्ल द्वादशी के दिन भी मनाया जाता है। इस वर्ष 15 नवम्बर बृहस्पति वार के दिन तुलसी शालिग्राम विवाह कराया जाएगा।

तुलसी विवाह की पौराणिक कथा और महत्व

तुलसी विवाह एक महत्वपूर्ण हिंदू पर्व है, जिसे विशेष रूप से कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है। यह पवित्र आयोजन भगवान विष्णु और तुलसी के विवाह के रूप में होता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, पद्मपुराण में वर्णित है कि राजा जलंधर की पत्नी वृंदा ने भगवान विष्णु को श्राप दिया था, जिसके कारण भगवान विष्णु शालिग्राम के रूप में पत्थर बन गए। इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए भगवान विष्णु को तुलसी से विवाह करना पड़ा, और तभी से तुलसी विवाह की परंपरा शुरू हुई।

पद्मपुराण में तुलसी विवाह की कथा

पद्मपुराण के अनुसार, कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की नवमी को तुलसी विवाह रचाया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु की प्रतिमा बनाकर उनका विवाह तुलसी से किया जाता है। विवाह के बाद नवमी, दशमी और एकादशी को व्रत रखा जाता है, और द्वादशी तिथि को व्रत का समापन होता है। कई प्राचीन ग्रंथों में इस दिन को विशेष रूप से तुलसी की स्थापना और विवाह के लिए निर्धारित किया गया है। कुछ भक्त इस दिन से लेकर पूर्णिमा तक तुलसी पूजन करते हैं और पांचवे दिन तुलसी विवाह का आयोजन करते हैं।

देवोत्थान एकादशी और तुलसी विवाह

तुलसी विवाह का आयोजन देवोत्थान एकादशी के दिन किया जाता है, जो एक मांगलिक और आध्यात्मिक उत्सव है। इस दिन भक्त घरों की सफाई करके रंगोली सजाते हैं और तुलसी चौरा के पास गन्ने का मंडप बनाते हैं, जिसमें शालिग्राम की मूर्ति रखी जाती है। इसके बाद विधि-विधान से भगवान विष्णु और तुलसी के विवाह की रस्में पूरी की जाती हैं। इस दौरान मंडप, वर पूजा, कन्यादान, हवन और प्रीतिभोज जैसी पारंपरिक क्रियाएं की जाती हैं। इस विवाह में शालिग्राम भगवान विष्णु के रूप में वर और तुलसी के पौधे को कन्या के रूप में पूजा जाता है।

तुलसी विवाह और उसका महत्व

तुलसी विवाह का महत्व न केवल धार्मिक है, बल्कि यह मानसिक और आध्यात्मिक शांति प्रदान करने का एक उपाय भी माना जाता है। इस दिन का आयोजन घरों में सुख-समृद्धि, पापों से मुक्ति और पुण्य फल की प्राप्ति के लिए किया जाता है। तुलसी को विष्णु प्रिया भी कहा जाता है और यह माना जाता है कि देवता जब जागते हैं, तो सबसे पहली प्रार्थना तुलसी की ही होती है। इस दिन भगवान विष्णु के साथ तुलसी के विवाह से भक्तों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं।

व्रत और पूजन की विधि

तुलसी विवाह के दिन व्रत रखने का विशेष महत्व है। आस्थावान भक्त इस दिन श्रद्धा और भक्ति से व्रत करते हैं, जिससे उनके जन्मों के पाप समाप्त होते हैं और पुण्य की प्राप्ति होती है। इस दिन तुलसी के पौधे को लाल चुनरी ओढ़ाई जाती है और उसे शालिग्राम के साथ विवाह के रस्मों के अनुसार पूजा जाता है। शालिग्राम और तुलसी का यह विवाह परम पवित्र माना जाता है और इसे विधिपूर्वक संपन्न करना शुभ माना जाता है।

तुलसी विवाह से प्राप्त लाभ

तुलसी विवाह के दिन व्रत करने और तुलसी की पूजा करने से व्यक्ति को पापों से मुक्ति, पुण्य की प्राप्ति, सुख-समृद्धि और मानसिक शांति मिलती है। तुलसी को हर घर में पूजनीय माना गया है, और इसके पौधे को घर के वातावरण को शुद्ध और स्वास्थ्यवर्धक बनाने वाला माना जाता है। प्रतिदिन तुलसी में जल चढ़ाने और उसकी पूजा करने से जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और व्यक्ति के जीवन में समृद्धि आती है।

तुलसी विवाह और संतान प्राप्ति का संबंध

शास्त्रों के अनुसार, जिन दंपत्तियों को संतान नहीं होती, वे एक बार तुलसी विवाह करके कन्यादान के पुण्य का लाभ प्राप्त कर सकते हैं। तुलसी विवाह करने से संतान सुख की प्राप्ति और जीवन में खुशहाली आती है। इस दिन की पूजा से परिवार में सुख-शांति बनी रहती है और सभी प्रकार के शुभ कार्यों का आरंभ होता है।

तुलसी विवाह का आयोजन न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि यह जीवन में सुख, समृद्धि और शांति की प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण अवसर भी है। इस दिन भगवान विष्णु और तुलसी के विवाह का आयोजन करके भक्त अपने जीवन को धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से परिपूर्ण बना सकते हैं। तुलसी की पूजा और विवाह का यह पर्व भक्तों के लिए विशेष पुण्य और आशीर्वाद का मार्ग खोलता है।

तुलसी विवाह की विधि

तुलसी विवाह एक महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान है, जिसे विशेष रूप से कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु और तुलसी के विवाह की रस्में होती हैं। तुलसी विवाह के आयोजन में कुछ महत्वपूर्ण विधियों का पालन किया जाता है, जिनसे यह पूजा विशेष पुण्य और आशीर्वाद प्रदान करती है।

तुलसी विवाह की विधि:

तुलसी का गमला सजाना: सबसे पहले तुलसी के पौधे का गमला साफ-सुथरा करके गेरू और चूने से रंगकर सजाना चाहिए। यह न केवल पूजा स्थल को सुंदर बनाता है, बल्कि यह पौधे के पवित्रता और महत्व को भी दर्शाता है।

मंडप सजाना: विवाह के लिए सुंदर मंडप तैयार करें। इसके लिए गन्ने और फूलों का उपयोग करें। साड़ी या अन्य पारंपरिक वस्त्रों से मंडप को सजाकर उसे भव्य बनाना चाहिए। यह मंडप विवाह के इस पवित्र अवसर को और भी शुभ बना देता है।

परिवार के सदस्य तैयार हों: इस दिन परिवार के सभी सदस्य नए कपड़े पहनकर तुलसी विवाह में शामिल होने के लिए तैयार हो जाएं। यह एक पारंपरिक अवसर है, और इसमें सबका योगदान महत्वपूर्ण होता है।

शालिग्राम जी की मूर्ति या चित्र: तुलसी विवाह के लिए भगवान विष्णु की काली मूर्ति या शालिग्राम की मूर्ति की आवश्यकता होती है। यदि यह मूर्ति उपलब्ध न हो, तो आप अपनी श्रद्धा अनुसार सोने, पीतल या मिश्रित धातु की मूर्ति का उपयोग कर सकते हैं, या फिर भगवान विष्णु की तस्वीर भी ले सकते हैं। यदि किसी कारण से मूर्ति प्राप्त करना संभव न हो, तो आप पंडित जी से अनुरोध करके वे मंदिर से शालिग्राम की मूर्ति प्राप्त कर सकते हैं।

गणेश पूजन: सबसे पहले गणेश जी का पूजन करें। भगवान गणेश को पहले पूजने से सभी विघ्न दूर होते हैं और पूजा का मार्ग प्रशस्त होता है।

भगवान विष्णु का पूजन: गणेश पूजन के बाद, भगवान विष्णु की प्रतिमा को तुलसी के पौधे के पास लाकर रखें। फिर, मंत्रों का उच्चारण करते हुए गाजे-बाजे के साथ भगवान विष्णु की पूजा करें। इस समय आप परिवार के सभी सदस्य मिलकर इस शुभ अवसर को और भी पवित्र बना सकते हैं।

तुलसी विवाह की विधि बहुत सरल है, लेकिन इसे श्रद्धा और भक्ति से करना चाहिए। इस दिन के अनुष्ठान से घर में सुख-समृद्धि आती है और भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। यह पवित्र अवसर न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि परिवार में प्यार, सद्भावना और आशीर्वाद का संदेश भी देता है।

भगवान विष्णु का आवाहन इस मन्त्र के साथ करें –

” आगच्छ भगवन देव अर्चयिष्यामि केशव। तुभ्यं दास्यामि तुलसीं सर्वकामप्रदो भव  “

( यानि हे भगवान केशव , आइये देव मैं आपकी पूजा करूँगा , आपकी सेवा में तुलसी को समर्पित करूँगा। आप मेरे सभी मनोरथ पूर्ण करना )

फिर इस मंत्र से तुलसी जी का ध्यान करें

देवी त्वं निर्मिता पूर्वमर्चितासि मुनीश्वरैः

नमो नमस्ते तुलसी पापं हर हरिप्रिये।।

तुलसा जी व भगवान विष्णु की प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा करके निम्नस्तुति आदि के द्वारा भगवान को निद्रा से जगाये।

उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये।

त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्‌ सुप्तं भवेदिदम्‌॥

उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव।

गतामेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः॥

शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव।

उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये।

विष्णु जी को पीले वस्त्र धारण करवाये ,पीला रंग विष्णु जी का प्रिय है।

कांसे के पात्र में दही, घी, शहद रखकर भगवान् को अर्पित करें।

फिर पुरुष सूक्त हरी ॐ सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्ष:सहस्रपात् |

स भूमि सर्वत: स्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् || आदि 16 मंत्रो से या सामर्थ्य हो तो षोडशोपचार से पूजा करें।

इस मंत्र को बोलकर तुलसी जी का पूजन करें।

तुलसी श्रीर्महालक्ष्मीर्विद्याविद्या यशस्विनी।

धर्म्या धर्मानना देवी देवीदेवमन: प्रिया।।

लभते सुतरां भक्तिमन्ते विष्णुपदं लभेत्।

तुलसी भूर्महालक्ष्मी: पद्मिनी श्रीर्हरप्रिया।।

तुलसी विवाह की विस्तृत विधि

तुलसी विवाह हिंदू धर्म में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और पवित्र धार्मिक अनुष्ठान है, जो विशेष रूप से कार्तिक माह की शुक्ल एकादशी को मनाया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु और तुलसी के विवाह के साथ-साथ घर में सुख-समृद्धि और शांति का वास होता है। तुलसी विवाह के दौरान कुछ विशेष विधियों का पालन करना चाहिए, जो पूजा को पूर्ण और शुभ बनाते हैं।

तुलसी विवाह की विधि:

तुलसी माता को ओढ़नी पहनाना: तुलसी के पौधे को लाल रंग की ओढ़नी पहनानी चाहिए, ताकि यह विधि और भी अधिक शुभ हो और तुलसी माता की पूजा का महत्व बढ़े।

शालिग्राम जी की पूजा: शालिग्राम जी को चावल नहीं चढ़ाए जाते हैं। इसीलिए उन्हें तिल चढ़ाएं। साथ ही, शालिग्राम जी और तुलसी माता को दूध और हल्दी का लेप भी चढ़ाएं। गन्ने से बनाए गए मंडप की भी दूध और हल्दी से पूजा करनी चाहिए, ताकि पूजा स्थल की पवित्रता बनी रहे।

विवाह की रस्में निभाना: तुलसी विवाह के दौरान सभी पारंपरिक विवाह रस्मों का पालन करें। तुलसी और शालिग्राम जी के फेरे भी करवाने चाहिए, जैसे एक सामान्य विवाह में होते हैं। इस समय “ओम तुलस्यै नमः” मंत्र का उच्चारण करना चाहिए, जो पूजा को और भी प्रभावशाली बनाता है।

सुहाग का सामान चढ़ाना: तुलसी माता की शादी के लिए साड़ी, ब्लाउज, मेहंदी, काजल, बिंदी, सिंदूर, चूड़ा आदि सुहाग का सामान और बर्तन चढ़ाएं। यह विवाह की रस्मों को पूर्णता प्रदान करता है और भगवान विष्णु के साथ तुलसी के संबंध को और भी शुभ बनाता है।

भोजन का भोग अर्पित करना: जो भी भोजन तैयार किया गया हो, उसे एक थाली में दो व्यक्तियों के लिए रखकर फेरों के समय भगवान विष्णु और तुलसी को भोग लगाने के लिए रखें। यह भोजन उन्हें समर्पित करने का एक पवित्र तरीका है।

कन्यादान का संकल्प: कन्यादान का संकल्प करें और भगवान से प्रार्थना करें:

"हे परमेश्वर! इस तुलसी को आप विवाह की विधि से ग्रहण कीजिये। यह पार्वती के बीज से प्रकट हुई है, वृन्दावन की भस्म में स्थित रही है। आपको तुलसी अत्यंत प्रिय है, अतः इसे मैं आपकी सेवा में अर्पित करता हूँ। मैंने इसे पुत्री की तरह पाल पोस कर बड़ा किया है। और आपकी तुलसी आपको ही दे रहा हूँ। हे प्रभु, इसे स्वीकार करने की कृपा करें।"

तुलसी और विष्णु की पूजा: इसके बाद तुलसी और विष्णु दोनों की पूजा करें और तुलसी माता की कथा सुनें। यह कथा इस पूजा के महत्व को और अधिक बढ़ा देती है।

आरती और मंत्रोच्चारण: अंत में कपूर से तुलसी माता की आरती करें और नामाष्टक मंत्र का यथा सामर्थ्य जप करें। यह पूजा का समापन करता है और भक्तों को पुण्य फल प्रदान करता है।

तुलसी विवाह एक अत्यंत शुभ और पुण्यकारी अनुष्ठान है, जो घर में सुख-शांति और समृद्धि लाता है। इसे श्रद्धा और भक्ति से किया जाता है। तुलसी विवाह की विधियों का पालन करके व्यक्ति जीवन में समस्त शुभ फल प्राप्त कर सकता है। यह पूजा न केवल धार्मिक महत्व रखती है, बल्कि समाज में प्रेम और सामंजस्य को बढ़ावा देती है।

वृंदा वृंदावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी।

पुष्पसारा नंदनीय तुलसी कृष्ण जीवनी।।

एतभामांष्टक चैव स्त्रोतं नामर्थं संयुतम।

य: पठेत तां च सम्पूज्य सौश्रमेघ फलंलमेता।।

तुलसी विवाह के बाद की विधि

तुलसी विवाह एक पूर्ण और पवित्र अनुष्ठान है, जो कार्तिक माह की शुक्ल एकादशी को विधिपूर्वक संपन्न किया जाता है। विवाह के बाद कुछ विशेष विधियों और अनुष्ठानों का पालन किया जाता है, जो इस दिन की पूजा को और भी अधिक प्रभावशाली और पुण्यकारी बनाते हैं।

1. आरती और भोग का वितरण:

तुलसी विवाह के बाद, सबसे पहले भगवान विष्णु और तुलसी माता की आरती करें। कपूर से उनकी आरती करते समय, श्रद्धा और भक्ति के साथ भगवान को अर्पित किए गए भोग का प्रसाद भक्तों के बीच वितरित करें। यह प्रसाद भगवान की कृपा का प्रतीक होता है, और यह पूरे परिवार के लिए शुभ और पुण्यकारी है।

2. हवन और पूर्णाहुति:

तुलसी विवाह के बाद, सुबह के समय हवन करें और उसमें पूर्णाहुति अर्पित करें। इसके लिए खीर, घी, शहद और तिल के मिश्रण का उपयोग किया जाता है। हवन में 108 आहुति दें, जो हवन के अनुष्ठान को संपन्न और सफल बनाता है।

3. महिलाएं तुलसी माता के गीत गाती हैं:

हवन के दौरान महिलाएं तुलसी माता के गीत गाती हैं, जो इस पवित्र अनुष्ठान को और भी शुभ बनाता है। इसी दौरान, व्रत करने वाली महिला के पीहर वाले कपड़े पहनाए जाते हैं, जिससे यह संस्कार और भी पवित्र और उत्सवपूर्ण हो जाता है।

4. शालीग्राम और तुलसी को भोग अर्पित करें:

हवन और गीतों के साथ-साथ, शालीग्राम और तुलसी माता को श्रद्धा के अनुसार भोजन परोसकर भोग अर्पित करें। इसके साथ ही, श्रद्धानुसार दक्षिणा भी अर्पित की जानी चाहिए। यह पूजा के पूर्णता का संकेत है और भगवान की कृपा की प्राप्ति का एक माध्यम है।

5. भगवान से प्रार्थना:

हवन और भोग अर्पण के बाद, भगवान से प्रार्थना करें:

"प्रभु! इस व्रत को आपकी प्रसन्नता के लिए मैंने पूरी श्रद्धा से किया है। यदि इस व्रत में कोई कमी रह गई हो तो कृपया मुझे क्षमा करें। अब आप तुलसी को लेकर बैकुंठ धाम पधारें। आप मेरी पूजा से सदा संतुष्ट रहकर मुझे आशीर्वाद प्रदान करें।"

6. तुलसी विवाह का परायण और भोजन:

इसके बाद तुलसी विवाह का परायण (समापन) करें और भोजन का आयोजन करें। इस दिन भोजन में आँवला, गन्ना और बैर अवश्य शामिल करें। यह आहार स्वास्थ्य और समृद्धि का प्रतीक माने जाते हैं।

7. तुलसी के पत्ते का सेवन:

विवाह के बाद, जो तुलसी के पत्ते गिर जाएं, उन्हें स्वयं खाएं। यह बहुत शुभ माना जाता है और इस कार्य से व्यक्ति को विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है।


तुलसी और शालिग्राम का विवाह करना न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि यह भगवान विष्णु की भक्ति का एक महत्वपूर्ण रूप भी है। इसे करने से घर में सुख, समृद्धि और शांति का वास होता है। इस पूजा का पालन विधिपूर्वक करने से न केवल इस जन्म के, बल्कि पूर्वजन्म के पाप भी नष्ट हो जाते हैं और भक्तों को भगवान की कृपा प्राप्त होती है।


तुलसी शालिग्राम विवाह कथा

वृंदा और भगवान विष्णु की कथा: तुलसी विवाह का पवित्र महत्व

प्राचीन काल की एक महत्वपूर्ण कथा के अनुसार, एक लड़की थी जिसका नाम वृंदा था। उसका जन्म राक्षसों के कुल में हुआ था, लेकिन उसका दिल सच्चे भक्तिमार्ग पर था। बचपन से ही वह भगवान विष्णु की बड़ी श्रद्धा से पूजा करती थी और भगवान के प्रति उसकी भक्ति अतुलनीय थी।

जब वृंदा बड़ी हुई, तो उसका विवाह राक्षसों के राजा जलंधर से हुआ। जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था और वह एक अत्यंत शक्तिशाली और पराक्रमी दैत्य था। वृंदा ने अपने पति जलंधर को अत्यधिक प्रेम और श्रद्धा से सेवा की, और एक आदर्श पतिव्रता बनकर हमेशा अपने कर्तव्यों का पालन करती रही।

देवताओं और दानवों का युद्ध

एक समय देवताओं और दानवों के बीच घमासान युद्ध छिड़ा। जलंधर को देवताओं से लड़ने के लिए भेजा गया। युद्ध के दौरान वृंदा ने अपने पति जलंधर से कहा, "स्वामी, आप युद्ध में जा रहे हैं। मैं तब तक पूजा में बैठी रहूँगी और आपके विजय के लिए अनुष्ठान करूंगी। जब तक आप वापस नहीं लौटते, मैं अपना संकल्प नहीं तोड़ूंगी।"

वृंदा का संकल्प बहुत मजबूत था और भगवान विष्णु की भक्ति में वह पूरी तरह से समर्पित थी। इसके प्रभाव से देवता भी जलंधर को पराजित नहीं कर सके। देवताओं ने जब देखा कि वे युद्ध में हार रहे हैं, तो वे भगवान विष्णु के पास गए और उनसे सहायता की प्रार्थना की।

भगवान विष्णु का छल और जलंधर का वध

भगवान विष्णु ने देवताओं से कहा, "वृंदा मेरी परम भक्त है, मैं उसके साथ छल नहीं कर सकता।" लेकिन देवताओं ने कहा, "भगवान, अब हमारे पास कोई और उपाय नहीं है। आप ही हमारी मदद कर सकते हैं।"

भगवान विष्णु ने तब जलंधर का रूप धारण किया और वृंदा के महल में पहुंचे। जब वृंदा ने देखा कि उसके पति जलंधर लौटे हैं, तो वह तुरंत पूजा से उठ गई और उनके चरणों में झुकी। जैसे ही उसने अपने संकल्प को तोड़ा, देवताओं ने जलंधर को पराजित कर दिया और युद्ध में उसे मार डाला। जलंधर का सिर काटकर पृथ्वी पर गिरा और वह वृंदा के महल में गिरा।

वृंदा ने देखा कि उसका पति जलंधर का सिर कट चुका है, तो उसने भगवान विष्णु से पूछा, "आप कौन हैं?" भगवान विष्णु ने तब अपना असली रूप प्रकट किया। वृंदा ने सब कुछ समझ लिया और उन्हें श्राप दिया, "आपने मेरे साथ छल किया है, इसलिए आप पत्थर के रूप में बदल जाएं।"

तुलसी और शालिग्राम की उत्पत्ति

वृंदा के श्राप से भगवान विष्णु तुरंत पत्थर के रूप में बदल गए। देवता और लक्ष्मी जी भगवान विष्णु की इस स्थिति से बहुत दुखी हुए और भगवान विष्णु से वापस अपनी असली रूप में आने की प्रार्थना की। भगवान ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और वृंदा के श्राप के प्रभाव से उन्हें अपने वास्तविक रूप में वापस लौटा दिया।

वृंदा ने अपने पति जलंधर का सिर लेकर सती हो गई और उसकी राख से एक पौधा उगा। भगवान विष्णु ने कहा, "आज से इस पौधे का नाम तुलसी होगा। इस पौधे से उत्पन्न शालिग्राम पत्थर के साथ ही पूजा की जाएगी। मैं बिना तुलसी के भोग स्वीकार नहीं करूंगा।"

तब से भगवान विष्णु और तुलसी का संबंध विशेष रूप से जुड़ गया। तुलसी का विवाह शालिग्राम के साथ कार्तिक माह में किया जाता है। इसे विशेष रूप से देवउठनी एकादशी के दिन मनाया जाता है, जो तुलसी विवाह के रूप में प्रसिद्ध है।

तुलसी पूजा का महत्व

तुलसी पूजा का महत्व अत्यधिक है, क्योंकि यह पूजा भगवान विष्णु के साथ तुलसी के अटूट संबंध को दर्शाती है। तुलसी का विवाह शालिग्राम के साथ एक धार्मिक अनुष्ठान बन गया है, जिसमें भगवान विष्णु की कृपा और भक्तों के जीवन में सुख-समृद्धि की कामना की जाती है।

कथा - 2

देवप्रबोधिनी एकादशी और भगवान विष्णु का जागरण

देवप्रबोधिनी एकादशी विशेष रूप से भगवान विष्णु के चार माह की नींद के बाद जागने के दिन के रूप में प्रसिद्ध है। यह एकादशी कार्तिक शुक्ल पक्ष में मनाई जाती है, जो इस दिन भगवान विष्णु के जागरण का प्रतीक है।

धार्मिक मान्यता के अनुसार, जब भगवान विष्णु ने शंखासुर नामक राक्षस को पराजित किया, तब इस युद्ध में भगवान अत्यंत थक गए थे। शंखासुर एक बहुत शक्तिशाली दैत्य था, और भगवान विष्णु को उसे पराजित करने में लंबा समय लगा। भाद्रपद माह की शुक्ल एकादशी को इस युद्ध का समापन हुआ, और भगवान विष्णु ने शंखासुर को मारा। युद्ध के इस कठिन परिश्रम के कारण भगवान विष्णु क्षीरसागर लौटकर विश्राम करने लगे।

भगवान विष्णु ने चार माह तक विश्राम किया और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागे। इस दिन सभी देवी-देवताओं ने भगवान विष्णु का पूजन किया और उनके जागने की खुशी में उत्सव मनाया। इस कारण, कार्तिक माह की शुक्ल एकादशी को 'देवप्रबोधिनी एकादशी' कहा जाता है।

देवप्रबोधिनी एकादशी का महत्व न केवल भगवान विष्णु के जागने के प्रतीक के रूप में है, बल्कि इस दिन व्रत और उपवास करने का भी विशेष महत्व है। इसे मनाने से भक्तों को भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है, और जीवन में सुख-समृद्धि का आगमन होता है।

कथा - 3

भगवान विष्णु की अल्पनिद्रा और भक्तों के लिए उसका महत्व

एक बार, भगवान विष्णु की प्रिय देवी लक्ष्मी जी ने भगवान से एक आग्रह किया। उन्होंने कहा, "हे भगवान, आप दिन-रात जागते रहते हैं, लेकिन जब आप सोते हैं, तो लाखों-करोड़ों वर्षों के लिए आपकी निद्रा का आरंभ होता है। इस समय समस्त सृष्टि का नाश हो जाता है। ऐसे में, कृपया आप नियमित रूप से विश्राम लिया करें, ताकि मुझे भी कुछ समय आराम का मिल सके। आपके इस विश्राम से मुझे आपकी सेवा करने का भी अवसर मिलेगा।"

लक्ष्मी जी की यह बात भगवान विष्णु को सही लगी। उन्होंने उत्तर दिया, "तुम ठीक कहती हो, लक्ष्मी। मेरी जागरूकता से सभी देवताओं और विशेष रूप से तुम्हें कठिनाइयाँ होती हैं। तुम्हें मेरी सेवा करने का समय नहीं मिलता। इसलिए, मैं यह निर्णय लेता हूँ कि मैं प्रत्येक वर्ष चार महीने वर्षा ऋतु में शयन करूंगा। मेरी यह निद्रा 'अल्पनिद्रा' और 'प्रलयकालीन महानिद्रा' के रूप में प्रसिद्ध होगी।"

भगवान विष्णु ने आगे कहा, "मेरी यह अल्पनिद्रा मेरे भक्तों के लिए अत्यधिक मंगलकारी होगी। इस समय, जो भी भक्त मेरे शयन की भावना से मेरी सेवा करेंगे, मैं उनके घर लक्ष्मी के साथ निवास करूंगा और उन्हें अपनी कृपा प्रदान करूंगा।"

यह कथा हमें यह संदेश देती है कि भगवान की उपासना के सही समय पर सेवा और भक्ति का महत्व बढ़ जाता है, और उनका आशीर्वाद हमारे जीवन में सुख-समृद्धि लाता है।

तुलसी विवाह व्रत कथा

तुलसी विवाह व्रत की कथा प्राचीन ग्रंथों में विशेष रूप से वर्णित है। यह कथा न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसके माध्यम से जीवन में सत्य, ईमानदारी और भगवान की कृपा की महिमा भी समझाई जाती है। आइए जानें तुलसी विवाह व्रत की एक महत्वपूर्ण कथा:

कथा का प्रारंभ:

एक कुटुंब में ननद और भाभी साथ रहती थीं। ननद का विवाह नहीं हुआ था, और वह तुलसी के पौधे की बहुत सेवा करती थी। तुलसी के पौधे के प्रति उसकी श्रद्धा और भक्ति अनमोल थी। लेकिन उसकी भाभी को यह सब बिल्कुल भी पसंद नहीं था। वह ननद को ताने देते हुए कहती कि "जब तुम्हारा विवाह होगा, तब मैं तुलसी के पौधे से बारातियों को खिलाऊँगी और तुम्हारे दहेज में भी तुलसी ही दूंगी।"

ननद का विवाह और भाभी का छल:

कुछ समय बाद ननद का विवाह पक्का हो गया। विवाह के दिन, भाभी ने अपनी बात को साकार करते हुए बारातियों के सामने तुलसी का गमला फोड़ दिया और कह दिया कि वही तुलसी के पौधे से बारातियों को भोजन मिलेगा। लेकिन तुलसी की कृपा से वह फूटा हुआ गमला अनेकों स्वादिष्ट पकवानों में बदल गया। इसके बाद, भाभी ने गहनों के नाम पर तुलसी की मंजरी से बने गहनों को पहनाया, और वे भी सोने और जवाहरात में बदल गए। तुलसी के जनेऊ को भी रेशमी और सुंदर वस्त्रों में बदलते देखा गया। ननद की ससुराल में उसकी समृद्धि की बहुत प्रशंसा हुई।

भाभी का आश्चर्य और तुलसी की महिमा का ज्ञान:

यह सब देख भाभी को बहुत आश्चर्य हुआ और उसने अब तुलसी माता की पूजा का महत्व समझा। उसे एहसास हुआ कि तुलसी माता की सेवा से ही यह सब हुआ था। भाभी की एक बेटी थी, और वह अपनी बेटी से कहती थी, "तुम भी तुलसी की सेवा करो, तुम्हें भी बुआ की तरह फल मिलेगा।" हालांकि, बेटी का मन तुलसी सेवा में नहीं लगता था।

लड़की का विवाह और भाभी का पुनः प्रयास:

समय के साथ लड़की का विवाह भी तय हो गया। भाभी सोचती है कि जैसा उसने अपनी ननद के साथ किया था, वैसा ही अपनी बेटी के साथ भी करेगी। वह फिर से बारातियों के सामने तुलसी का गमला फोड़ देती है, लेकिन इस बार गमला वही मिट्टी का ही रह जाता है, मंजरी और पत्ते भी वैसे ही रहते हैं, और जनेऊ भी अपना रूप नहीं बदलता। बारातियों और परिवार वालों की आलोचना होती है। लड़की के ससुराल वाले भी उसकी बुराई करते हैं।

भाभी का पश्चाताप और भाई का संघर्ष:

भाभी ने अपनी ननद को कभी घर बुलाया नहीं था, लेकिन अब भाभी का भाई सोचता है कि वह अपनी बहन से मिलकर आएगा। वह अपनी पत्नी से कहता है कि वह कुछ उपहार अपनी बहन के घर ले जाएगा। भाभी ने थैले में ज्वार भरकर उसे कहा कि "यही भेजो, और कुछ नहीं है।" भाई दुखी होकर अपनी बहन के घर चला गया। रास्ते में वह गौशाला के पास रुकता है और ज्वार का थैला गाय के सामने पलट देता है। तभी गौशाला के मालिक ने कहा, "आप गाय के सामने हीरे-मोती और सोना क्यों डाल रहे हैं?" भाई ने सारी बात बताई, और गाय वाले ने उसे धन से भरा थैला दे दिया। खुशी-खुशी भाई अपनी बहन के घर पहुंचता है।

कथा का संदेश:

यह कथा हमें यह सिखाती है कि तुलसी माता की सेवा और पूजा से जीवन में सुख, समृद्धि और श्रद्धा की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति तुलसी के प्रति श्रद्धा रखते हुए उसकी सेवा करते हैं, उनकी मनोकामनाएं पूरी होती हैं और जीवन में खुशहाली आती है। भाभी ने अपने कृत्य से यह समझा कि ईश्वर की भक्ति और प्रेम में ही सच्चा फल निहित होता है।

About - Himanshu

Jai Mata Di I am Astro Himanshu Bhardwaj, son of Shri Astro Rajesh Bhardwaj, a young astrologer in the world of astrology.
I belong to a Brahmin family, hence since childhood I have had a distinct interest in astrology and our religious scriptures and the Vedas. 
I got the company of my father and my guru Astro Rajesh Sharma ji right from my childhood and due to this, 
my interest in astrology was awakened and I received education from him only.
In today's world, where many people say that things like astrology or astrology are superstitions, 
I believe that scientific evidence of all these things is available in our religion and we should unite and support this golden age of our religion, 
Sanatan and astrology. History should be taken forward and awareness should be spread among the people.
Through my studies and knowledge acquired over many years, I want to awaken the coming generation and always dedicate myself for the welfare of humanity.
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ज्योतिषीय दृष्टिकोण से महालक्ष्मी और सरस्वती योग

महालक्ष्मी योग वैदिक ज्योतिष में धन और ऐश्वर्य की प्राप्ति का प्रतीक है। यह योग विशेष रूप से उन लोगों की कुंडली में देखने को मिलता है, जिनके भाग्य में अत्यधिक संपत्ति, ऐश्वर्य, और भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति का संकेत होता है। महालक्ष्मी योग का निर्माण तब होता है, जब कुंडली के द्वितीय भाव का स्वामी बृहस्पति, जो धन और ज्ञान का कारक है, एकादश भाव (लाभ स्थान) में बैठता है और अपनी दृष्टि से पुनः द्वितीय भाव को देखता है। यह योग जातक को अपार धन, समाज में प्रतिष्ठा और सफलता प्रदान करता है।

महालक्ष्मी योग के लाभ और विशेषताएं:

अत्यधिक धन संपदा की प्राप्ति: इस योग के प्रभाव से जातक को धन, संपत्ति और समृद्धि की प्राप्ति होती है, जिससे उनका आर्थिक जीवन स्थिर और समृद्ध रहता है।

व्यापार और करियर में उन्नति: महालक्ष्मी योग व्यापारियों, उद्योगपतियों और व्यवसाय में लगे लोगों के लिए विशेष रूप से शुभ माना गया है, क्योंकि इससे लाभ के अवसर बढ़ते हैं और सफलता में निरंतर वृद्धि होती है।

भौतिक सुख-सुविधाएं: इस योग के प्रभाव से जातक को विलासितापूर्ण जीवन और भौतिक सुख प्राप्त होते हैं, जिनमें घर, वाहन और उच्च जीवनस्तर शामिल हैं।

प्रतिष्ठा और सामाजिक सम्मान: इस योग का प्रभाव जातक को समाज में मान-सम्मान और उच्च प्रतिष्ठा दिलाता है,

और वे अपने ज्ञान व समृद्धि के लिए प्रसिद्ध होते हैं।

आध्यात्मिक संतुलन: महालक्ष्मी योग के कारण जातक का जीवन धन और संपत्ति के साथ-साथ आध्यात्मिक संतुलन बनाए रखने में भी समर्थ रहता है।

सरस्वती योग: विशेष लाभ और महत्व

सरस्वती योग विद्या और कला के क्षेत्र में उन्नति का योग है, जो ज्ञान, संगीत, लेखन, और रचनात्मकता के क्षेत्र में अपार सफलता का कारक है। इस योग का निर्माण तब होता है जब शुक्र, बृहस्पति, और बुध एक साथ हों या केंद्र भाव में एक-दूसरे से संबंध बनाएँ। युति या दृष्टि के माध्यम से किसी भी प्रकार का संबंध बनाकर यह योग जातक की कुंडली में विद्यमान हो सकता है। इस योग वाले व्यक्ति पर विद्या की देवी मां सरस्वती की विशेष कृपा रहती है।

सरस्वती योग के लाभ और विशेषताएं:

विद्या और ज्ञान की प्राप्ति: सरस्वती योग के प्रभाव से जातक विद्या, ज्ञान और कला में उत्कृष्टता प्राप्त करता है। वे विद्या और शिक्षा के क्षेत्र में उन्नति करते हैं।

कला और संगीत में प्रवीणता: इस योग का प्रभाव व्यक्ति को कला, संगीत और रचनात्मकता में सफलता की ओर प्रेरित करता है,

जिससे वे इन क्षेत्रों में सम्मान और प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं।

रचनात्मक लेखन और साहित्य में उन्नति: सरस्वती योग साहित्य और लेखन के क्षेत्र में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के लिए अत्यधिक लाभकारी है, जिससे उन्हें रचनात्मकता और नवीनता में बढ़ावा मिलता है।

बौद्धिक विकास और मान्यता: इस योग के प्रभाव से जातक को समाज में ज्ञान के कारण सम्मान प्राप्त होता है, और उनकी बौद्धिक क्षमता की प्रशंसा होती है।

प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता: इस योग का प्रभाव छात्रों और प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने वालों के लिए भी लाभकारी होता है,

जिससे उन्हें शिक्षा में उत्कृष्टता और प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता प्राप्त होती है।

ज्योतिषीय दृष्टिकोण से महालक्ष्मी और सरस्वती योग

इन दोनों योगों का निर्माण जातक की कुंडली में एक अनूठा प्रभाव डालता है।

महालक्ष्मी योग जहां भौतिक सुख-समृद्धि और ऐश्वर्य की प्राप्ति कराता है, वहीं सरस्वती योग व्यक्ति को मानसिक और बौद्धिक उन्नति की ओर अग्रसर करता है।

इन योगों के प्रभाव से व्यक्ति जीवन में संपूर्ण संतुलन प्राप्त कर सकता है, जोकि अत्यधिक धन, शिक्षा, और आंतरिक संतोष का प्रतीक होता है।

सफला एकादशी (पौष कृष्ण एकादशी) का महत्व: व्रत के लाभ और विशेषताएं

सफला एकादशी हिंदू धर्म में अत्यंत पुण्यदायी और कल्याणकारी मानी जाती है। यह एकादशी विशेष रूप से भगवान विष्णु को समर्पित है और इसे पौष मास के कृष्ण पक्ष में मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन व्रत करने से जीवन के समस्त पापों का नाश होता है, और व्यक्ति को पुण्य और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है। सफला एकादशी व्रत रखने से भक्तों को मानसिक शांति, आंतरिक संतुलन, और भौतिक समृद्धि मिलती है।

व्रत की विशेषताएं और लाभ:

  1. पापों का नाश: सफला एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति के सभी पाप नष्ट होते हैं, और जीवन में शांति और सौभाग्य का वास होता है।
  2. सफलता का प्रतीक: इसे जीवन में सफलता की प्राप्ति का मार्ग माना गया है। मान्यता है कि इस व्रत के प्रभाव से व्यक्ति के सभी कार्य सफल होते हैं।
  3. धन और समृद्धि: सफला एकादशी पर भगवान विष्णु की पूजा और व्रत करने से आर्थिक समृद्धि और जीवन में स्थायित्व का अनुभव होता है।
  4. शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य: व्रत करने से शरीर और मन को शुद्धि मिलती है, जिससे मानसिक शांति और आत्मबल में वृद्धि होती है।
  5. आध्यात्मिक उन्नति: सफला एकादशी का व्रत करने से भक्तों को आध्यात्मिक उन्नति का अनुभव होता है और भगवान विष्णु की अनुकम्पा प्राप्त होती है।

इस दिन भगवान विष्णु की आराधना, ध्यान और कथा का श्रवण करना बहुत ही शुभ माना गया है, जो जीवन में हर तरह की नकारात्मक ऊर्जा को दूर करता है।

पौष पुत्रदा एकादशी (पौष शुक्ल एकादशी) का महत्व

पुत्रदा एकादशी का व्रत हिंदू धर्म में विशेष रूप से संतान प्राप्ति और संतान के कल्याण के लिए किया जाता है। इस एकादशी का उल्लेख कई धार्मिक ग्रंथों में है, और इसे संतान प्राप्ति की इच्छा रखने वाले दंपतियों के लिए अत्यंत शुभ माना जाता है। वर्ष में दो बार पुत्रदा एकादशी आती है—पहली श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को और दूसरी पौष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को। दोनों ही एकादशियों का महत्व समान रूप से माना गया है, लेकिन पौष पुत्रदा एकादशी का विशेष महत्व संतान की प्राप्ति के लिए माना गया है।

पौराणिक कथा और उत्पत्ति

पुत्रदा एकादशी के संबंध में कई पौराणिक कथाएं हैं, जिनमें से एक प्रमुख कथा का वर्णन पद्म पुराण में मिलता है। कथा के अनुसार, महिष्मती नगरी में सुकेतुमान नामक एक राजा राज्य करता था। राजा और उनकी रानी शैव्या की कोई संतान नहीं थी, जिस कारण वे दोनों अत्यंत दुखी रहते थे। संतानहीनता के कारण राजा और रानी के मन में हमेशा निराशा और दुख बना रहता था, क्योंकि उनके बाद राज्य को संभालने वाला कोई नहीं था।

एक दिन राजा सुकेतुमान अपने वनवास के दौरान गहन सोच में डूबे हुए थे और तभी उन्हें एक आश्रम के निकट कुछ ऋषि-मुनि दिखाई दिए। राजा ने उन ऋषियों से संतान सुख की प्राप्ति का उपाय पूछा। ऋषियों ने राजा को पौष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करने का सुझाव दिया और बताया कि इस व्रत के प्रभाव से भगवान विष्णु की कृपा से उन्हें संतान सुख की प्राप्ति होगी। राजा ने व्रत का पालन किया और उनकी पत्नी रानी शैव्या ने भी पूरी श्रद्धा के साथ यह व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से उन्हें एक योग्य पुत्र की प्राप्ति हुई, जिसने आगे चलकर राज्य की बागडोर संभाली।

पुत्रदा एकादशी व्रत की विधि

पुत्रदा एकादशी का व्रत अत्यंत पवित्र और नियमों का पालन करते हुए किया जाना चाहिए। इस व्रत को विधि-विधान से करने से भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है और संतान प्राप्ति की संभावना बढ़ जाती है। व्रत की प्रारंभिक प्रक्रिया में एक दिन पूर्व यानी दशमी तिथि से ही सात्विक भोजन ग्रहण करने का नियम है। दशमी के दिन तामसिक भोजन और व्रत भंग करने वाले किसी भी कार्य से बचना चाहिए, ताकि एकादशी का व्रत पूर्णता और पवित्रता के साथ किया जा सके।

व्रत विधि में प्रमुख चरण:

  1. प्रातः स्नान और संकल्प: व्रत के दिन प्रातःकाल उठकर स्नान करें और भगवान विष्णु का स्मरण करते हुए संतान प्राप्ति की कामना से व्रत का संकल्प लें। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा का विशेष महत्व है, इसलिए उनकी प्रतिमा या चित्र के समक्ष व्रत का संकल्प लें।

  2. भगवान विष्णु की पूजा: पूजा में भगवान विष्णु को तिल, फूल, तुलसी पत्र, और धूप-दीप अर्पित करें। इसके साथ ही भगवान विष्णु के मंत्रों का जाप करें। पुत्रदा एकादशी के दिन विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करना भी अत्यंत शुभ माना गया है।

  3. एकादशी कथा का पाठ: व्रत के दौरान पुत्रदा एकादशी की कथा का श्रवण या पाठ करना अनिवार्य है। कथा सुनने से व्रत का फल प्राप्त होता है और भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है।

  4. रात्रि जागरण और कीर्तन: इस व्रत में रात्रि जागरण और भगवान के भजनों का कीर्तन करने का महत्व है। जागरण करने से व्रत का पुण्य फल कई गुना बढ़ जाता है। भक्तों के लिए यह एक ऐसा अवसर होता है, जिसमें वे भगवान के प्रति अपनी पूर्ण भक्ति को अर्पित करते हैं।

  5. द्वादशी के दिन पारण: एकादशी के उपवास का समापन द्वादशी तिथि के दिन किया जाता है। इस दिन ब्राह्मण भोजन और दान का महत्व होता है। संभव हो तो अन्न, वस्त्र, और धन का दान करें, और इस तरह व्रत का समापन करें।

व्रत के लाभ और महत्व

पुत्रदा एकादशी का व्रत संतान की प्राप्ति के लिए अत्यंत लाभकारी माना गया है। इसके अतिरिक्त इस व्रत से प्राप्त होने वाले अन्य लाभ इस प्रकार हैं:

  • संतान सुख: इस व्रत को करने से दंपति को संतान सुख की प्राप्ति होती है। विशेष रूप से उन दंपतियों के लिए यह व्रत अत्यंत लाभकारी माना जाता है, जिन्हें संतान प्राप्ति में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है।

  • संतान की दीर्घायु और कल्याण: केवल संतान प्राप्ति ही नहीं, बल्कि इस व्रत का लाभ संतान की दीर्घायु और कल्याण के रूप में भी प्राप्त होता है।

  • सुख-समृद्धि और पारिवारिक शांति: पुत्रदा एकादशी व्रत से घर-परिवार में सुख-समृद्धि और शांति का वास होता है।

  • पापों का नाश: एकादशी व्रत का पालन पापों के नाश के लिए अत्यंत प्रभावी माना गया है। इसके द्वारा व्यक्ति के पिछले कर्मों के पापों का नाश होता है और पुण्य की प्राप्ति होती है।

  • भगवान विष्णु की कृपा प्राप्ति: व्रत करने से भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है, जो जीवन में सभी प्रकार की बाधाओं को दूर कर सुख-समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करती है।

आध्यात्मिक महत्व

पुत्रदा एकादशी केवल भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए ही नहीं, बल्कि आत्मिक शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी की जाती है। इस व्रत में उपवास और ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने मन को शुद्ध कर भगवान के निकट जाता है। यह एक ऐसा अवसर है, जिसमें भक्त अपनी इच्छाओं और वासनाओं पर नियंत्रण करते हुए आत्म-शुद्धि का मार्ग अपनाते हैं।

षटतिला एकादशी (माघ कृष्ण एकादशी) का महत्व और व्रत के लाभ

षटतिला एकादशी, जो माघ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी होती है, हिंदू धर्म में एक अत्यंत पुण्यकारी और विशेष व्रत माना जाता है। यह एकादशी तिल के महत्व को समर्पित है, और इसके नाम से ही स्पष्ट है कि इस व्रत में तिल का विशेष स्थान है। इस दिन तिल का दान, तिल से स्नान, तिल से आहार, तिल का उपयोग हवन में, तिल का उबटन और तिल के तेल का दान करना अत्यंत शुभ माना जाता है। इसलिए इस व्रत का नाम "षटतिला" पड़ा है, जिसमें "षट" का अर्थ है "छह" और "तिला" का अर्थ "तिल" है।

षटतिला एकादशी व्रत का महत्व

षटतिला एकादशी का व्रत भक्तों को मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि की ओर ले जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, यह व्रत सभी प्रकार के पापों का नाश करने वाला और शुभ फल प्रदान करने वाला होता है। इस व्रत को करने से व्यक्ति के सभी प्रकार के पाप धुल जाते हैं, और उसे मोक्ष प्राप्ति की दिशा में एक कदम आगे बढ़ने का अवसर मिलता है। तिल का उपयोग इस एकादशी पर अनिवार्य है, क्योंकि तिल का धार्मिक दृष्टिकोण से बहुत अधिक महत्व है। यह एकादशी ठंड के मौसम में आती है और तिल का सेवन तथा दान स्वास्थ्य और पवित्रता दोनों के लिए लाभकारी माना जाता है।

व्रत की विधि

षटतिला एकादशी का व्रत संकल्प और शुद्धता के साथ करना आवश्यक होता है। इस दिन प्रातः स्नान के बाद व्रत का संकल्प लेकर भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। पूजा में तिल का प्रयोग करना अनिवार्य माना गया है। भगवान को तिल से बने प्रसाद अर्पित करने के साथ ही तिल का दान किया जाता है। रात्रि को जागरण और भजन-कीर्तन करने का भी विशेष महत्व है।

व्रत के दौरान तिल के छह प्रकार के प्रयोग अनिवार्य हैं:

  1. तिल का उबटन: व्रती को तिल का उबटन करके स्नान करना चाहिए।
  2. तिल का आहार: इस दिन तिल से बने खाद्य पदार्थों का सेवन करना चाहिए।
  3. तिल का हवन: पूजा में तिल का हवन करने से व्रत का फल और भी अधिक बढ़ जाता है।
  4. तिल से स्नान: पानी में तिल डालकर स्नान करने से शरीर और मन की शुद्धि होती है।
  5. तिल का दान: तिल के तेल, तिल के लड्डू या तिल के अन्य रूपों का दान अत्यंत फलदायी माना जाता है।
  6. तिल के दीपक: इस दिन तिल के तेल से दीपक जलाना शुभ माना जाता है।

व्रत के लाभ

षटतिला एकादशी का व्रत अनेक लाभ प्रदान करता है, जो इस प्रकार हैं:

  1. पापों का नाश: षटतिला एकादशी के व्रत से व्यक्ति के पूर्व जन्म के सभी पापों का नाश होता है। तिल का दान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है जो व्यक्ति को पापों से मुक्त करता है।

  2. शारीरिक और मानसिक शुद्धि: इस व्रत में तिल के स्नान और आहार का विशेष महत्व है, जो शरीर को शुद्ध करने के साथ ही मन को भी शांत करता है।

  3. सुख-समृद्धि: इस दिन तिल का दान करने से घर में सुख-समृद्धि आती है। व्रती को धन, अन्न और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, जिससे घर-परिवार में खुशहाली बनी रहती है।

  4. पुण्य का संचय: षटतिला एकादशी के दिन तिल के दान और उपवास का पुण्य अगले कई जन्मों तक प्राप्त होता है। इस व्रत का पुण्य अन्य एकादशियों की तुलना में अधिक माना गया है।

  5. आध्यात्मिक उन्नति: यह व्रत व्यक्ति को आत्मिक और आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में ले जाता है। भगवान विष्णु के प्रति श्रद्धा बढ़ती है, और जीवन में धर्म और भक्ति की ओर झुकाव होता है।

  6. स्वास्थ्य लाभ: माघ के महीने में तिल का सेवन करने से शरीर को ठंड से सुरक्षा मिलती है। तिल में औषधीय गुण होते हैं जो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं और सर्दियों में स्वास्थ्य को बनाए रखने में सहायक होते हैं।

षटतिला एकादशी की कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक समय की बात है कि एक गरीब ब्राह्मण महिला भूखी-प्यासी रहती थी और उसे भोजन-पानी का अभाव था। हालांकि, उसने अपने जीवन में कभी भी दान नहीं किया था। एक दिन भगवान विष्णु ने ब्राह्मण महिला की भक्ति और उसकी कठिनाइयों को देखते हुए उसे स्वप्न में दर्शन दिए और तिल का दान करने का सुझाव दिया। उसने भगवान के निर्देशानुसार तिल का दान किया और धीरे-धीरे उसके जीवन में सुख-समृद्धि का वास हुआ। इस प्रकार तिल का दान करने से उसकी दरिद्रता समाप्त हुई। इस कथा से पता चलता है कि तिल का दान किस प्रकार व्यक्ति को पुण्य और समृद्धि का आशीर्वाद देता है।

जया एकादशी (माघ शुक्ल एकादशी) का महत्व और व्रत के लाभ

जया एकादशी, माघ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी होती है, जिसे विशेष रूप से विजय और आत्म-संयम का प्रतीक माना जाता है। यह एकादशी जीवन में आने वाली बाधाओं और संघर्षों से उबरने के लिए भक्तों को मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करती है। इस दिन विशेष रूप से भगवान विष्णु की पूजा की जाती है, जो अपने भक्तों को आशीर्वाद देकर उन्हें सफलता, समृद्धि और आंतरिक शक्ति प्रदान करते हैं। जया एकादशी का व्रत हर व्यक्ति के जीवन में सुख-शांति और विजय की प्राप्ति के लिए अत्यंत लाभकारी माना जाता है।

जया एकादशी का महत्व:

जया एकादशी का महत्व न केवल धार्मिक दृष्टि से, बल्कि व्यक्तिगत विकास और मानसिक शांति के लिए भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यह दिन विशेष रूप से उन लोगों के लिए होता है, जो किसी कठिनाई या संकट से गुजर रहे हैं। इस दिन उपवास और पूजा करने से जीवन में आने वाली सभी समस्याओं का समाधान होता है। जया एकादशी को एक ऐसी तिथि माना जाता है, जब श्रद्धालु अपने पापों से मुक्त हो सकते हैं और भगवान की कृपा प्राप्त कर सकते हैं।

इस दिन भगवान विष्णु की विशेष पूजा की जाती है क्योंकि विष्णु भगवान ही जीवन के सभी संघर्षों और कठिनाइयों से उबरने में मदद करते हैं। इस दिन उपवास करने से मानसिक शांति, आंतरिक संतुलन और जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है। इसके साथ ही, भक्तों को शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्तर पर ताकत मिलती है, जिससे वे जीवन की कठिन परिस्थितियों से आसानी से जूझ सकते हैं।

व्रत की विधि:

जया एकादशी का व्रत भगवान विष्णु की पूजा के साथ प्रारंभ किया जाता है। व्रती को इस दिन उपवास रखना चाहिए और विशुद्ध आहार से भगवान की पूजा करनी चाहिए। पूजा में विशेष रूप से श्री विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ, व्रत की कथा सुनना, और भगवान के चरणों में दीप जलाना अत्यधिक शुभ माना जाता है। इस दिन रात को जागरण करना और भजन-कीर्तन करना भी महत्वपूर्ण होता है, जिससे भक्त भगवान के प्रति अपनी भक्ति और समर्पण को प्रकट कर सकें।

व्रती को विशेष ध्यान रखना चाहिए कि इस दिन कोई भी निंदनीय या अशुभ कार्य न करें। इस दिन किसी भी प्रकार के मांसाहारी भोजन का सेवन नहीं करना चाहिए। ताजे फल, सब्जियां और दूध से बने पदार्थों का सेवन करना सबसे उत्तम रहता है।

व्रत के लाभ:

  1. विजय की प्राप्ति: इस व्रत का प्रमुख लाभ यह है कि यह विजय और सफलता का प्रतीक है। जया एकादशी का व्रत करने से जीवन में आने वाली हर समस्या का समाधान मिलता है, और व्यक्ति को जीवन के हर क्षेत्र में सफलता मिलती है।

  2. आध्यात्मिक उन्नति: जया एकादशी का व्रत करने से आत्म-संयम और मानसिक शांति की प्राप्ति होती है। यह व्रत व्यक्ति को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी उन्नति प्रदान करता है।

  3. पापों का नाश: जया एकादशी के व्रत से व्यक्ति के पापों का नाश होता है और उसे पुण्य की प्राप्ति होती है। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा से विशेष रूप से पापों का क्षय होता है और व्यक्ति अपने जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव करता है।

  4. सकारात्मकता और मानसिक शांति: इस दिन उपवास और पूजा से मानसिक शांति और संतुलन की प्राप्ति होती है। यह व्रत मन को शुद्ध करता है और जीवन में सकारात्मक बदलाव लाता है।

  5. संघर्षों से मुक्ति: जया एकादशी का व्रत उन लोगों के लिए विशेष लाभकारी है जो किसी न किसी संघर्ष या परेशानी का सामना कर रहे हैं। यह व्रत उन्हें उभरने की शक्ति और साहस प्रदान करता है, जिससे वे अपने जीवन की कठिनाइयों से बाहर निकल सकते हैं।

  6. समृद्धि और सुख: इस व्रत को करने से जीवन में समृद्धि और सुख की प्राप्ति होती है। भगवान विष्णु की कृपा से घर में शांति और सुख-समृद्धि का वास होता है।

जया एकादशी की कथा:

पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक समय की बात है कि एक राजा ने जया एकादशी का व्रत किया था। वह राजा बहुत ही दयालु और धर्मनिष्ठ था, लेकिन फिर भी उसे अपने राज्य में कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। उसने भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करने के लिए जया एकादशी का व्रत किया। व्रत के बाद राजा की सभी समस्याएं हल हो गईं, और उसके राज्य में सुख-शांति का वास हुआ। यह कथा यह बताती है कि जया एकादशी का व्रत जीवन में आने वाली सभी प्रकार की समस्याओं से छुटकारा दिलाता है और विजय की प्राप्ति कराता है।