
“सपिण्डनादि-सर्वकर्मनिरुपण” नामक best astrologer website allso.in , best and excellent website matrimonial vivahallso.com , best web designer website ashish lodhi http://adweb.rf.gd/
अशौचकाल का निर्णय, अशौच में निषिद्ध कर्म, सपिण्डीकरण श्राद्ध, पिण्डमेलन की प्रक्रिया, शय्यादान, पददान तथा गया श्राद्ध की महिमा गरुड़ उवाच गरुड़जी ने कहा –
हे प्रभो! सपिण्डन की विधि, सूतक का निर्णय और शय्यादान तथा पददान की सामग्री एवं उनकी महिमा के विषय में कहिए।
श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान ने कहा – हे तार्क्ष्य! सपिण्डीकरण आदि सम्पूर्ण क्रियाओं के विषय में बतलाता हूँ, जिसके द्वारा मृत प्राणी प्रेत नाम को छोड़कर पितृगण में प्रवेश करता है, उसे सुनो।
जिनका पिण्ड रुद्रस्वरुप पितामह आदि के पिण्डों में नहीं मिला दिया जाता, उनकों पुत्रों के द्वारा दिये गये अनेक प्रकार के दान प्राप्त नहीं होते।
उनका पुत्र भी सदा अशुद्ध रहता है कभी शुद्ध नहीं होता क्योंकि सपिण्डीकरण के बिना सतक की निवृत्ति अर्थात समाप्ति नहीं होती।
इसलिए पुत्र के द्वारा सूतक के अन्त में सपिण्डन किया जाना चाहिए। janiye garupurad ka bare may
मैं सभी के लिए सूतकान्त का यथोचित काल कहूँगा। ब्राह्मण दस दिन में, क्षत्रिय बारह दिन में, वैश्य पन्द्रह दिन और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है।
प्रेत संबंधी सूतक में सपिण्डी दस दिन में शुद्ध होते हैं।
सकुल्या (कुल के लोग) तीन रात में शुद्ध होते हैं और गोत्रज स्नान मात्र से शुद्ध हो जाते हैं।
चौथी पीढ़ी तक के बान्धव दस रात में, पाँचवीं पीढ़ी के लोग छ: रात में, छठी पीढ़ी के चार दिन में और सातवीं पीढ़ी के तीन दिन में, आठवीं पीढ़ी के एक दिन में, नवीं पीढ़ी के दो प्रहर में तथा दसवीं पीढ़ी के लोग स्नान मात्र से मरणाशौच और जननाशौच से शुद्ध हो जाते हैं। देशान्तर में गया हुआ कोई व्यक्ति अपने कुल के जननाशौच या मरणाशौच के विषय का समाचार दस दिन के अंदर सुनता है तो दस रात्रि बीतने में जितना समय शेष रहता है, उतने समय के लिए उसे अशौच होता है। दस दिन बीत जाने के बाद और एक वर्ष के पहले तक ऎसा समाचार मिलने पर तीन रात तक अशौच रहता है।
संवत्सर अर्थात एक वर्ष बीत जाने पर समाचार मिले तो स्नान मात्र से शुद्धि हो जाती है।
मरणाशौच के आदि के दो भागों के बीतने के पूर्व अर्थात छ: दिन तक यदि कोई दूसरा अशौच आ पड़े तो आद्य अशौच की निवृति के साथ ही दूसरे अशौच की भी निवृत्ति अर्थात शुद्धि हो जाती है।
किसी बालक की दाँत निकलने से पूर्व मृत्यु होने पर सद्य: अर्थात उसके अन्तिम संस्कार के बाद स्नान करने पर, चूडाकरण अर्थात मुण्डन हो काने पर एक रात, व्रतबन्ध होने पर तीन रात और व्रतबन्ध के पश्चात मृत्यु होने पर दस रात का अशौच होता है। जब किसी भी वर्ण की कन्या की मृत्यु जन्म से लेकर सत्ताईस मास की अवस्था तक हो जाए तो सभी वर्णों में समान रुप से सद्य: अशौच की निवृत्ति हो जाती है। इसके बाद वाग्दानपर्यन्त एक दिन का और इसके बाद अथवा बिना वाग्दान के भी सयानी कन्याओं की मृत्यु होने पर तीन रात्रि का अशौच होता है, यह निश्चित है। वाग्दान के अनन्तर कन्या की मृत्यु होने पर पितृकुल और वरकुल दोनों को तीन दिन का तथा कन्यादान हो जाने पर केवल पति के कुल में अशौच होता है। kya hai garudpurad
छ: मास के अंदर गर्भस्त्राव हो जाने पर जितने माह का गर्भ होता है, उतने ही दिनों में शुद्धि होती है।
इसके बाद अर्थात छ: माह के बाद गर्भस्त्राव हो तो उस स्त्री को अपनी जाति के अनुरुप अशौच होता है। गर्भपात होने पर सपिण्ड की सद्य: (स्नानोत्तर) शुद्धि हो जाती है। कलियुग में जननाशौच और मरणाशौच से सभी वर्णों की दस दिन में शुद्धि हो जाती है, ऎसा शास्त्र का निर्णय है।
मरणाशौच में आशीर्वाद, देवपूजा, प्रत्युत्थान (आगन्तुक के स्वागतार्थ उठना) अभिवादन, पलंग पर शयन अथवा किसी अन्य का स्पर्श नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार मरणाशौच में संध्या, दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पन, ब्राह्मणभोजन तथा व्रत नहीं करना चाहिए।
जो व्यक्ति सूतक में नित्य-नैमित्तिक अथवा काम्य कर्म करता है, उसके द्वारा पहले किये गये नित्य-नैमित्तिक आदि कर्म विनष्ट हो जाते हैं।
व्रती, मन्त्रपूत, अग्निहोत्री ब्राह्मण, ब्रह्मनिष्ठ, यती और राजा – इन्हें सूतक नहीं लगता।
विवाह, उत्सव अथवा यज्ञ में मरणाशौच हो जाने पर उस अशौच की प्रवृत्ति के पूर्व बनाया हुआ अन्न भोजन करने योग्य होता है – ऎसा मनु ने कहा है। सूतक ना जानने के कारन जो व्यक्ति सूतक वाले घर से अन्नादि कुछ ग्रहण करता है, वह दोषी नहीं होता, किंतु याचक को देने वाला दोष का भागी होता है।
जो सूतक को छिपाकर ब्राह्मण को अन्न देता है, वह दाता तथा सूतक को जानकर भी जो ब्राह्मण सूतकान्न का भोजन करता है, वे दोनों ही दोषी होते हैं।
इसलिए सूतक से शुद्धि प्राप्त करने के लिए पिता का सपिण्डन-श्राद्ध करना चाहिए तभी वह मृतक पितृगणों के साथ पितृलोक में जाता है। तत्त्वदर्शी मुनियों ने बारहवें दिन, तीन पक्ष में, छ: मास में अथवा एक वर्ष पूर्ण होने पर सपिण्डीकरन करने के लिए कहता हूँ।कलियुग में धार्मिक भावना के अनित्य होने से, पुरुषों की आयु क्षीण होने से और शरीर की अस्थिरता के कारण बारहवें दिन ही सपिण्डीकरण कर लेना प्रशस्त है।
गृहस्थ के मरने पर व्रतबन्ध, उत्सव आदि, व्रत, उद्यापन तथा विवाहादि कृत्य नहीं होते। जब तक पिण्डमेलन नहीं होता अर्थात पितरों में पिण्ड मिला नहीं दिया जाता या सपिण्डीकरण-श्राद्ध नहीं हो जाता तब तक उसके यहाँ से भिक्षु भिक्षा भी नहीं ग्रहण करता, अतिथि उसके यहाँ सत्कार नहीं ग्रहण करता और नित्य-नैमित्तिक कर्मों का भी लोप रहता है। कर्म का लोप होने से दोष का भागी होना पड़ता है इसलिए चाहे निरग्निक हो या सार्ग्निक (अग्निहोत्री) बारहवें दिन सपिण्डन कर देना चाहिए।
सभी तीर्थों में स्नान आदि करने और सभी यज्ञों का अनुष्ठान करने से जो फल प्राप्त होता है, वही फल बारहवें दिन सपिण्डन करने से प्राप्त होता है। अत: स्नान करके मृतावस्था में गोमय से लेपन करके पुत्र को शास्त्रोक्त विधि से सपिण्डन श्राद्ध करना चाहिए।
पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय आदि से विश्वे देवों का पूजन करे और असद्गति के पितरों के लिए भूमि में विकिर देकर हाथ-पाँव धोकर पुन: आचमन करें तब वसु, रुद्र और आदित्यस्वरूप पिता, पितामह तथा प्रपितामह को क्रमश: एक-एक अर्थात तीन पिण्ड प्रदान करें और चौथा पिण्ड मृतक को प्रदान करें।
चन्दन, तुलसीपत्र, धूप-दीप, सुन्दर भोजन, ताम्बूल, सुन्दर वस्त्र तथा दक्षिणा आदि से पूजन करें। तदनन्तर सुवर्ण की शलाका से प्रेत के पिण्ड को तीन भागों में विभक्त करके पितामह आदि के पिण्डों में पृथक-पृथक उसका मेलन करें अर्थात एक भाग पितामह के पिण्ड में, दूसरा भाग प्रपितामह के पिण्ड में तथा तीसरा भाग वृद्ध प्रपितामह के पिण्ड में मिलाएँ। हे तार्क्ष्य ! मेरा मत है कि माता के पिण्ड का मेलन पितामही आदि के पिण्ड के साथ और पिता के पिण्ड का मेलन पितामह आदि के पिण्ड के साथ करके सपिण्डीकरण-श्राद्ध संपन्न करना चाहिए।
जिसके पिता की मृत्यु हो गई हो और पितामह जीवित हों, उसे प्रपितामहादि पूर्व पुरुषों को तीन पिण्ड प्रदान करना चाहिए और पितृपिण्ड को तीन भागों में विभक्त करके (प्रपितामह आदि) उन्हीं के साथ मेलन करें। माता की मृत्यु हो जाने पर पितामही जीवित हो तो माता के सपिण्डन-श्राद्ध में भी पितृ-सपिण्डन की भाँति प्रपितामही आदि मे मातृपिण्ड का मेलन करना चाहिए अथवा पितृपिण्ड को मेरे पिण्ड (विष्णु जी के) में और मातृपिण्ड को महालक्ष्मी पिण्ड में मिलाएँ।
पुत्रहीन स्त्री का सपिण्डनादि श्राद्ध उसके पति को करना चाहिए और उसका सपिण्डीकरण उसकी सास आदि के साथ होना चाहिए।
एक मतानुसार विधवा स्त्री का सपिण्डीकरण पति, श्वसुर और वृद्ध श्वसुर के साथ करना चाहिए।
हे तार्क्ष्य ! यह मेरा मत नहीं है। विधवा स्त्री का सपिण्डन पति के साथ होने योग्य है। हे काश्यप ! यदि पति और पत्नी एक ही चिता पर आरुढ़ हुए हों तो तृण को बीच में रखकर शवसुरादि के पिण्ड के साथ स्त्री के पिण्ड का मेलन करना चाहिए।
एक चिता पर माता-पिता का दाह संस्कार किये जाने पर एक ही पुत्र पहले पिता के उद्देश्य से पिण्डदान करके स्नान करे, तदनन्तर अपनी सती माता का पिण्डदानन करके पुन: स्नान करे। यदि दस दिन के अन्तर्गत किसी सती ने अग्नि प्रवेश किया है तो उसका शय्यादान और सपिण्डन आदि कृत्य उसी दिन करना चाहिए, जिस दिन पति का किया जाए।
हे गरुड़ ! सपिण्डिकरण करने के अनन्तर पितरों का तर्पण करे और इस क्रिया में वेदमन्त्रों से समन्वित स्वधाकार का उच्चारण करे।
इसके पश्चात अतिथि को भोजन कराएँ और हन्तकार प्रदान करें। ऎसा करने से पितर, मुनिगण, देवता तथा दानव तृप्त होते हैं। भिक्षा एक ग्रास के बराबर होती है, पुष्कल चार ग्रास के बराबर होता है और चार पुष्कलों (सोलह ग्रास) का एक हन्तकार होता है।
सपिण्डीकरण में ब्राह्मणों के चरणों की पूजा चन्दन-अक्षत से करनी चाहिए और पितरों की अ़ायतृप्ति के लिये ब्राह्मण को दान देना चाहिए। वर्ष भर जीविका का निर्वाह करने योग्य घृत, अन्न, सुवर्ण, रजत, सुन्दर गौ, अश्व, गज, रथ और भूमिका आचार्य को दान करना चाहिए।
इसके बाद स्वस्तिवाचनपूर्वक मन्त्रों से कुंकुम, अक्षत और नैवेद्यादि के द्वारा ग्रहों, देवी और विनायक की पूजा करनी चाहिए। इसके बाद आचार्य मन्त्रोच्चारण करते हुए यजमान का अभिषेक करे और हाथ में रक्षासूत्र बाँधकर मन्त्र से पवित्र अक्षत प्रदान करें।
तदनन्तर विविध प्रकार के सुस्वादु मिष्टान्नों से ब्राह्मणों को भोजन कराएँ और फिर दक्षिणा सहित अन्न एवं जलयुक्त बारह घट प्रदान करें” तदनन्तर ब्राह्माणि को वर्ण क्रम से अपनी शुद्धि हेतु क्रमश: जल, शस्त्र, कोड़े फर डण्डे का स्पर्श करना चाहिए अर्थात ब्राह्मण जल का, क्षत्रिय शस्त्र का, वैश्य कोड़े का तथा शूद्र डण्डे का स्पर्श करे। ऎसा करने से वे शुद्ध हो जाते हैं।
इस प्रकार सपिण्डन-श्राद्ध करके क्रिया करते समय पहने गये वस्त्रों का त्याग कर दें। इसके बाद श्वेत वर्ण के वस्त्र को धारण करके शय्यादान करें। इन्द्र सहित सभी देवता शय्यादान की प्रशंसा करते हैं, अत: मृतक के उद्देश्य से उसकी मृत्यु के बाद अथवा जीवनकाल में भी शय्या प्रदान करनी चाहिए।
शय्या सुदृढ़ काष्ठ की सुन्दर एवं विचित्र चित्रों से चित्रित, दृढ़, रेशमी सूत्रों से बनी हुई तथा स्वर्णपत्रों से अलंकृत हो। श्वेत रुई के गद्दे, सुन्दर तकिये तथा चादर से युक्त हो तथा पुष्प, गन्ध आदि द्रव्यों से सुवासित हो। वह सुन्दर बन्धनों से भली भाँति बँधी हुई हो और पर्याप्त विशाल हो तथा सुख प्रदान करने वाली हो – ऎसी शय्या को बनाकर आस्तरणयुक्त (कुश या दरी-चादरयुक्त) भूमि पर रखें। उस शय्या के चारों ओर छाता, चाँदी का दीपालय, चँवर, आसन और पात्र, झारी या कलश, गड़ुआ, दर्पण, पाँच रंगों वाला चँदवा तथा शयनोपयोगी और सभी सामग्रियों को यथास्थान स्थापित करें।
उस शय्या के ऊपर सभी प्रकार के आभूषण, आयुध तथा वस्त्र से युक्त स्वर्ण की श्रीलक्ष्मी-नारायण की मूर्त्ति स्थापित करें। सौभाग्यवती स्त्री के लिये दी जाने वाली शय्या के साथ पूर्वोक्त वस्तुओं के अतिरिक्त कज्जल, महावर, कुंकुम, स्त्रियोचित वस्त्र, आभूषण तथा सौभाग्य-द्रव्य आदि सब कुछ प्रदान करें।
तदनन्तर सपत्नीक ब्राह्मण को गन्ध-पुष्पादि से अलंकृत करके ब्राह्मणी को कर्णाभरण, अंगूठी और सोने के कण्ठ सूत्र से विभूषित करें।
उसके बाद ब्राह्मण को साफा, दुपट्टा और कुर्ता पहनाकर श्रीलक्ष्मी-नारायण मूर्ति के आगे सुख शय्या पर बिठाए।
कुंकुम और पुष्पमाला आदि से श्रीलक्ष्मी-नारायण की भली भाँति पूजा करें। तदनन्तर लोकपाल, नवग्रह, देवी और विनायक की पूजा करें।
उत्तराभिमुख होकर अंजलि में पुष्प लेकर ब्राह्मण के सामने स्थित होकर इस मन्त्र का उच्चारण करें – हे कृष्ण ! जैसे क्षीरसागर में आपकी शय्या है, वैसे ही जन्म-जन्मान्तर में भी मेरी शय्या सूनी न हो। इस प्रकार प्रार्थना करके विप्र और श्रीलक्ष्मी-नारायण को पुष्पांजलि चढ़ाकर संकल्पपूर्वक उपस्कर (सभी सामग्रियों) के साथ व्रतोपदेशक, ब्रह्मवादी गुरु को शय्या का दान दे और कहे – “हे ब्राह्मण ! इस शय्या को ग्रहण करो” –
ब्राह्मण को ‘कोSदात्कस्मा अदात्कामोSदात्कामायादात् । कामो दाता काम: प्रतिग्रहीता कामैतत्ते ।।’ (यजु. 7।48),
यह मन्त्र कहते हुए ग्रहण करें। best astrologer website allso.in , best and excellent website matrimonial vivahallso.com , best web designer website ashish lodhi http://adweb.rf.gd/
इसके बाद शय्या पर स्थित ब्राह्मण को, लक्ष्मी और नारायण की प्रतिमा को हिलाएँ, तदनन्तर प्रदक्षिणा और प्रणाम करके उन्हें विसर्जित करें। यदि पर्याप्त धन-संपत्ति हो तो शय्या में सुखपूर्वक शयन करने के लिए सभी प्रकार के उपकरणों से युक्त अत्यन्त सुन्दर गृहदान भी करें।
जो जीवितावस्था में अपने हाथ से शय्यादान करता है, वह जीते हुए ही पर्वकाल में वृषोत्सर्ग भी करे। एक शय्या एक ही ब्राह्मण को देनी चाहिए।
बहुत ब्राह्मणों को एक शय्या कदापि नहीं देनी चाहिए। यदि वह शय्या विभक्त अथवा विक्रय करने के लिए दी जाती है तो वह दाता के अध:पतन का कारण बनती है।
सत्पात्र को शय्यादान करने से वांछित फल की प्राप्ति होती है और पिता तथा दान देने वाला पुत्र – दोनों इस लोक और परलोक में मुदित होते हैं। शय्यादान के प्रताप से दाता दिव्य इन्द्रलोक में अथवा सूर्यपुत्र यम के कोल में पहुँचता है, इसमें संशय नहीं है। श्रेष्ठ विमान पर आरुढ़ होकर अप्सरागणों से सेवित दाता प्रलयपर्यन्त आतंकरहित होकर स्वर्ग में स्थित रहता है। सभी तीर्थों में तथा सभी पर्व दिनों में जो भी पुण्यकार्य किये जाते हैं, उन सभी से अधिक पुण्य शय्यादान के द्वारा प्राप्त होता है। इस प्रकार पुत्र को शय्यादान करके पददान देना चाहिए।
पददान के विषय में मैं तुम्हें यथावत बतलाता हूँ, सुन&#
If you have any work from me or any types of quries , you can send me message from here. It's my pleasure to help you.
Book Your Appoitment Now With Best Astrologers