बभ्रुवाहनप्रेतसंस्कार नामक
इस अध्याय में पुत्र की महिमा, दूसरे के द्वारा दिये गये पिण्डदान आदि से प्रेतत्व से मुक्ति की बात कही गई है – इस संदर्भ में राजा बभ्रुवाहन तथा एक प्रेत की कथा का वर्णन है। सूत उवाच सूतजी ने कहा – ऎसा सुनकर पीपल के पत्ते की भाँति काँपते हुए गरुड़जी ने प्राणियों के उपकार के लिए पुन: भगवान विष्णु से पूछा। best astrologer website allso.in , best matrimonial and trusted website :- vivahallso.com , best web designer website ashish lodhi :- http://adweb.rf.gd , gallerytheme website:- http://gallerytheme.rf.gd
गरुड़ उवाच
गरुड़ जी ने कहा – हे स्वामिन ! किस उपाय से मनुष्य प्रमादवश अथवा जानकर पापकर्मों को करके भी यम की यातना को न प्राप्त हो, उसे कहिए। संसार रूपी सागर में डूबे हुए, दीन चित्तवाले, पाप से नष्ट बुद्धिवाले तथा विषयों के कारण दूषित आत्मा वाले मनुष्यों के उद्धार के लिये हे माधव! पुराणों में सुनिश्चित किये गये उपाय को बताइए, जिससे मनुष्य सद्गति प्राप्त कर सकें।
श्रीभगवानुवाच best astrologer website allso.in , best matrimonial and trusted website :- vivahallso.com , best web designer website ashish lodhi :- http://adweb.rf.gd , gallerytheme website:- http://gallerytheme.rf.gd
श्रीभगवान बोले – हे तार्क्ष्य ! मनुष्यों के हित की कामना से तुमने अच्छी बात पूछी है। सावधान होकर सुनो, मैं तुम्हें सब कुछ बताता हूँ। हे खगेश्वर! मैंने इसके पहले पुत्ररहित और पापी मनुष्यों की यातना का वर्णन किया है। पुत्रवान तथा धार्मिक मनुष्यों की पूर्वोक्त दुर्गति कभी नहीं होती।
यदि अपने पूर्वार्जित कर्मों के कारण पुत्रोत्पत्ति में विघ्न हो तो किसी उपाय से पुत्र की उत्पत्ति सम्पन्न करें। हरिवंशपुराण की कथा सुनकर, विधानपूर्वक शतचण्डी यज्ञ करके तथा भक्तिपूर्वक शिव की आराधना करके विद्वान को पुत्र उत्पन्न करना चाहिए।
यत: पुत्र पितरों की पुम् नामक नरक से रक्षा करता है, अत: स्वयं भगवान ब्रह्मा ने ही उसे पुत्र नाम से कहा है। एक धर्मात्मा पुत्र सम्पूर्ण कुल को तार देता है। पुत्र के द्वारा व्यक्ति लोकों को जीत लेता है, ऎसी सनातनी श्रुति है। इस प्रकार वेदों ने भी पुत्र के उत्तम माहात्म्य को कहा है।
इसलिए पुत्र का मुख देख करके मनुष्य पितृ-ऋण से मुक्त हो जाता है। पौत्र का स्पर्ष करके मनुष्य तीनों ऋणों – देव, ऋषि, पितृ – से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार पुत्र-पौत्र तथा प्रपौत्रों से यमलोक का अतिक्रमण करके स्वर्ग आदि को प्राप्त करता है।
ब्राह्मविवाह की विधि से ब्याही गई पत्नी से उत्पन्न औरस पुत्र ऊर्ध्वगति प्राप्त कराता है और संगृहीत पुत्र अधोगति की ओर ले जाता है। हे खगश्रेष्ठ ! ऎसा जान करके व्यक्ति हीनजाति की स्त्री से उत्पन्न पुत्रों को त्याग दे। हे खग ! सवर्ण पुरुषों से सवर्णा स्त्रियों में जो पुत्र उत्पन्न होते हैं, वे औरस पुत्र कहे जाते हैं और वे ही श्राद्ध प्रदान करके पितरों को स्वर्ग प्राप्त कराने के कारण होते हैं।
औरस पुत्र के द्वारा किए गये श्राद्ध से पिता को स्वर्ग प्राप्त होता है, इस विषय में क्या कहना? दूसरे के द्वारा दिये गये श्राद्ध से भी प्रेत स्वर्ग को चला जाता है, इस विषय में सुनो। यहाँ मैं एक प्राचीन इतिहास कहूँगा, जो और्ध्वदैहिक दान के श्रेष्ठ माहात्म्य को सूचित करता है।
हे तार्क्ष्य ! पूर्वकाल में त्रेता युग में महोदय नाम के रमणीय नगर में महाबलशाली और धर्मपरायण बभ्रुवाहन नामक एक राजा रहता था। वह यज्ञानुष्ठानपरायण, दानियों में श्रेष्ठ, लक्ष्मी से सम्पन्न, ब्राह्मणभक्त तथा साधु पुरुषों के प्रति अनुराग रखने वाला, शील तथा आचार आदि गुणों से युक्त, स्वजनों के प्रति अपनत्व और इतरजनों के प्रति दया के भाव से सम्पन्न था। janiye garudpuran ka seven chaptter
क्षात्रधर्मपरायण वह राजा औरस पुत्र की भाँति धर्मपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करता था और दण्ड देने योग्य अपराधियों को दण्ड देता था। वह महाबाहु किसी समय सेना के साथ मृगया के लिए नाना वृक्षों से युक्त एक घनघोर वन में प्रविष्ट हुआ।
वह वन नाना मृग गणों से व्याप्त और अनेक पक्षियों से भरा हुआ था। उस समय राजा ने वन के मध्य में दूर से एक मृग को देखा। राजा के द्वारा सुदृड़ बाण से विद्ध वह मृग बान सहित जंगल में अदृश्य हो गया। रुधिर से गीली हुई घास पर अंकित चिह्न से राजा ने उसका पीछा किया तब मृग के प्रसंग से वह राजा दूसरे वन में जा पहुंचा। best astrologer website allso.in , best matrimonial and trusted website :- vivahallso.com , best web designer website ashish lodhi :- http://adweb.rf.gd , gallerytheme website:- http://gallerytheme.rf.gd
भूख-प्यास से सूखे हुए कण्ठ वाला तथा परिश्रम के संताप से पीड़ित उस राजा ने एक जलाशय के समीप पहुँचकर घोड़े के साथ उसमें स्नान किया तथा कमल की गन्धादि से सुगन्धित शीतल जल का पान किया। इसके बाद उस जलाशय से बाहर निकलकर श्रमरहित राजा बभ्रुवाहन ने वृक्ष रूपी विशाल शाखाओं के कारण फैले हुए, मनोहर और शीतल छाया वाले तथा पक्षी समूहों से कूजित एक वट वृक्ष देखा।
वह वृक्ष सम्पूर्ण वन की महती पताका की भाँति स्थित था। उसकी जड़ के पास जाकर राजा बैठ गया। उसके बाद राजा ने भूख और प्यास से व्याकुल इन्द्रियों वाले, ऊपर की ओर उठे हुए बालों वाले, अत्यन्त मलिन, कुबड़े और माँस रहित एक भयावह प्रेत को देखा।
उस विकृत आकृति वाले भयावह प्रेत को देखकर बभ्रुवाहन विस्मित हो गया। प्रेत भी घने जंगलों में आये हुए राजा को देखकर चकित हो गया और समुत्सुक मन वाला होकर वह प्रेतराज उसके पास आया। हे तार्क्ष्य ! तब उस प्रेतराज ने राजा से कहा – हे महाबाहो ! आपके संबंध से मैंने प्रेत भाव का त्याग कर दिया है अर्थात मेरा प्रेत भाव छूट गया है और मैं परम शान्ति को प्राप्त हो गया हूँ तथा धन्यतर हो गया हूँ।
राजोवाच
राजा ने कहा – हे कृष्णवर्ण वाले तथा भयावह रूप वाले प्रेत ! किस कर्म के प्रभाव से देखने में डरावने लगने वाले और बहुत ही अमंगलकारी इस प्रेतत्व-स्वरूप को तुमने प्राप्त किया है। हे तात ! अपने प्रेतत्व की प्राप्ति का सारा कारण बतलाओ। तुम कौन हो और किस दान से तुम्हारा प्रेतत्व नष्ट होगा? प्रेत उवाच प्रेत ने कहा – हे श्रेष्ठ राजन ! मैं आरंभ से आपको सब कुछ बतलाता हूँ।
प्रेतत्व का कारण सुनकर आप कृपया उसे दूर करने की दया कीजिए। वैदिश नाम का एक नगर था जो सभी प्रकार की सम्पत्तियों से समृद्ध, नाना जनपदों से व्याप्त, अनेक प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण, धनिकों के भवनों तथा देव एवं राजप्रसादों से सुशोभित और अनेक प्रकार के धर्मानुष्ठानों से युक्त था।
हे तात ! मैं वहाँ रहता हुआ निरन्तर देवपूजा किया करता था। आपको विदित होना चाहिए कि मैं वैश्य जाति में उत्पन्न हुआ और मेरा नाम सुदेव था। मैंने हव्य प्रदान करके देवताओं का तथा कव्य प्रदान करके पितरों का तर्पण किया। अनेक प्रकार के दानों से मैंने ब्राह्मणों को सन्तुष्ट किया था और अनेक बार दीन, अंधे एवं कृपण मनुष्यों को अन्न दिया था।
किंतु हे राजन ! मेरा यह सारा सत्कर्म मेरे दुर्दैव से निष्फल हो गया। जिस कारण मेरा सुकृत निष्फल हुआ, वह मैं आपको बताता हूँ। मुझे कोई सन्तान नहीं है, मेरा कोई सुहृद नहीं है, कोई बान्धव नहीं है और न ऎसा कोई मित्र ही है जो मेरी और्ध्वदैहिक क्रिया करता।
हे महाराज ! मृत्यु के अनन्तर जिस व्यक्ति के उद्देश्य से षोडश मासिक श्राद्ध नहीं दिए जाते, सैकड़ों श्राद्ध करने पर भी उसका प्रेतत्व सुस्थिर ही रहता है अर्थात दूर नहीं होता। हे महाराज ! आप मेरा और्ध्वदैहिक कृत्य करके मेरा उद्धार कीजिए।
क्योंकि इस लोक में राजा सभी वर्णों का बन्धु कहा जाता है। इसलिए हे राजेन्द्र ! आप मेरा उद्धार कीजिए, मैं आपको मणिरत्न देता हूँ। हे वीर ! यदि आप मेरा हित चाहते हैं तो जैसे मेरी सद्गति हो सके और मेरी प्रेत योनि से जैसे मुक्ति हो सके, वैसा आप करें।
भूख-प्यास आदि दु:खों के कारण यह प्रेत योनि मेरे लिये दु:सह हो गई है। इस वन में सुन्दर स्वाद वाले शीतल जल और फल विद्यमान हैं फिर भी मैं भूख तथा प्यास से पीड़ित हूँ। मुझे जल व फल की प्राप्ति नहीं हो पाती। हे राजन ! यदि मेरे उद्देश्य से यथा विधि नारायण बलि की जाए, उसके बाद वेदमन्त्रों के द्वारा मेरी सभी और्ध्वदैहिक क्रिया सम्पन्न की जाए तो निश्चित ही मेरा प्रेतत्व नष्ट हो जाएगा, इसमें कोई संशय नहीं है।
मैंने सुन रखा है कि वेद के मन्त्र, तप, दान और सभी प्राणियों में दया, सत-शास्त्रों का श्रवण, भगवान विष्णु की पूजा और सज्जनों की संगति – ये सब प्रेत योनि के विनाश के लिए होते हैं। इसलिए मैं आपसे प्रेतत्व को नष्ट करने वाली विष्णु पूजा को कहूँगा। हे राजन ! न्यायोपार्जित दो सुवर्ण (32 माशा) भार का सोना लेकर उससे नारायण की एक प्रतिमा बनवाए, जिसे विविध पवित्र जलों से स्नान कराकर दो पीले वस्त्रों से वेष्टित करके सभी अलंकारों से विभूषित कर अधिवासित करें, तदनन्तर उसका पूजन करें।
उस प्रतिमा के पूर्व भाग में श्रीधर, दक्षिण में मधुसूदन, पश्चिम में वामन और उत्तर में गदाधर, मध्य में पितामह ब्रह्मा तथा महादेव शिव की स्थापना करके गन्ध-पुष्पादि द्रव्यों के द्वारा विधि-विधान से पृथक-पृथक पूजन करें।
उसके बाद प्रदक्षिणा करके अग्नि में हवन करके देवताओं को तृप्त करके घृत, दधि तथा दूध से विश्वेदेवों को तृप्त करें। तदनन्तर सामहित चित्तवाला यजमान स्नान करके नारायण के आगे विनीतात्मा होकर विधिपूर्वक मन में संकल्पित और्ध्वदैहिक क्रिया का आरंभ करें।
इसके बाद क्रोध तथा लोभ से रहित होकर शास्त्रविधि से सभी श्राद्धों को करें तथा वृषोत्सर्ग करे। तदनन्तर ब्राह्मणों को तेरह पददान करे, फिर शय्यादान देकर प्रेत के लिए घट का दान करे।
राजोवाच
राजा ने कहा – हे प्रेत ! किस विधान से प्रेत घट का निर्माण करना चाहिए और किस विधान से उसका दान करना चाहिए। सभी प्राणियों के ऊपर अनुकम्पा करने के हेतु से प्रेतों को मुक्ति दिलाने वाले प्रेतघट-दान के विषय में बताइए।
प्रेत उवाच
प्रेत ने कहा – हे महाराज ! आपने ठीक पूछा है, जिस सुदृढ़ दान से प्रेतत्व नहीं होता है, उसे मैं कहता हूँ, आप ध्यान से सुनें। प्रेतघट का दान, सभी प्रकार के अमंगलों का विनाश करने वाला, सभी लोकों में दुर्लभ और दुर्गति को नष्ट करने वाला है।
ब्रह्मा, शिव तथा विष्णु सहित लोकपालों युक्त तपाये हुए सोने का एक घट बनाकर उसे दूध, घी आदि से पूरा भरकर, भक्तिपूर्वक प्रणाम करके ब्राह्मण को दान करें। इसके अतिरिक्त तुम्हें अन्य सैकड़ों दानों को देने की क्या आवश्यकता? हे राजन ! उस घट के मध्य में ब्रह्मा, विष्णु तथा कल्याण करने वाले अविनाशी शंकर की स्थापना करें एवं घट के कण्ठ में पूर्व आदि दिशाओं में क्रमश: लोकपालों का आवाहन करके उनकी धूप, पुष्प, चन्दन आदि से विधिवत पूजा करके दूध और घी के साथ उस हिरण्यमय घट का ब्राह्मण को दान करना चाहिए।
हे राजन ! प्रेतत्व की निवृत्ति के लिए सभी दानों में श्रेष्ठ और महापातकों का नाश करने वाले इस दान को श्रद्धापूर्वक करना चाहिए। भगवानुवाच
श्रीभगवान ने कहा – हे कश्यपपुत्र गरुड़ ! प्रेत के साथ इस प्रकार बातचीत हो ही रही थी कि उसी समय हाथी, घोड़े आदि से व्याप्त राजा की सेना पीछे से वहाँ आ गई। सेना के आने के बाद राजा को महामणि देकर उन्हें प्रणाम करके पुन: अपने उद्धार के लिए और्ध्वदैहिक क्रिया करने की प्रार्थना करके वह प्रेत अदृश्य हो गया। pret na khah hai maharaj aapne thik pucha hai jish sudarshan dan say pratav nahi hota hai ushe may khahta hoon
हे पक्षिन् उस वन से निकलकर राजा भी अपने नगर को चला गया और अपने नगर में पहुँचकर प्रेत के द्वारा बताये हुए वचनों के अनुसार उसने विधि-विधान से और्ध्वदैहिक क्रिया का अनुष्ठान किया। उसके पुण्यप्रदान से मुक्त होकर प्रेत स्वर्ग को चला गया।
जब दूसरे के द्वारा दिये हुए श्राद्ध से प्रेत की सद्गति हो गई तो फिर पुत्र के द्वारा प्रदत्त श्राद्ध से पिता की सद्गति हो जाए, इसमें क्या आश्चर्य!! इस पुण्यप्रद इतिहास को जो सुनता है और जो सुनाता है, वे दोनों पापाचारों से युक्त होने पर भी प्रेतत्व को प्राप्त नहीं होते।
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