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ज्योतिष शास्त्र में अनेक योग और दोषों की चर्चा की गई है। कुछ दोष ऐसे होते हैं, जो जातक के जीवन पर विशेष प्रभाव डालते हैं और जिनका निवारण आवश्यक माना जाता है। इन दोषों के कारण व्यक्ति के जीवन में अनेक कठिनाइयाँ आ सकती हैं। आइए, जानते हैं ऐसे प्रमुख दोषों के बारे में:
1. अंगारक दोष
- जब मंगल और राहु किसी भी भाव में एक साथ स्थित होते हैं, तो अंगारक दोष बनता है।
- यह दोष व्यक्ति को क्रोधी, जिद्दी और हिंसक प्रवृत्ति वाला बना सकता है।
- इसके कारण दांपत्य जीवन में अशांति, कोर्ट-कचहरी के मामले और दुर्घटनाओं की संभावना रहती है।
2. चांडाल योग (गुरु राहु योग)
- जब गुरु के साथ राहु या केतु होता है, तो इसे चांडाल योग कहा जाता है।
- ऐसे जातकों को जीवन में सही निर्णय लेने में कठिनाई होती है।
- यह दोष शिक्षा, करियर और विवाह में रुकावटें उत्पन्न कर सकता है।
3. सूर्य-शनि दोष (शापित योग)
- जब जन्म कुंडली में सूर्य और शनि एक साथ स्थित होते हैं, तो इसे शापित योग माना जाता है।
- यह पिता और पुत्र के संबंधों में तनाव उत्पन्न कर सकता है।
- सरकारी नौकरी या प्रशासनिक क्षेत्र में संघर्ष रहता है।
4. ग्रहण दोष
- यदि जन्म कुंडली में सूर्य या चंद्रमा के साथ राहु या केतु स्थित होता है, तो इसे ग्रहण दोष कहा जाता है।
- यह मानसिक तनाव, अवसाद, पारिवारिक कलह और अस्थिर करियर का कारण बन सकता है।
- संतान प्राप्ति में भी बाधाएं आ सकती हैं।
5. दारिद्रय योग
- यदि जन्म कुंडली में द्वितीय, ग्यारहवें, या नवम भाव के स्वामी कमजोर हों और अशुभ ग्रहों के प्रभाव में हों, तो यह दारिद्रय योग बनता है।
- ऐसे जातकों को आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
- मेहनत के बावजूद सफलता मिलने में कठिनाई होती है।
6. विदेह योग
- जब किसी व्यक्ति की कुंडली में सभी ग्रह छठे, आठवें, या बारहवें भाव में स्थित होते हैं, तो विदेह योग बनता है।
- इस योग के प्रभाव से जातक को जीवन में बार-बार संघर्ष करना पड़ता है।
- ऐसे व्यक्ति को मानसिक और आध्यात्मिक द्वंद्व का सामना करना पड़ता है।
7. कालसर्प दोष
जब जन्म के समय ग्रहों की दशा में राहु-केतु आमने-सामने होते हैं और सभी ग्रह एक ओर स्थित होते हैं, तो इसे 'कालसर्प दोष' कहा जाता है। इस दोष के 12 प्रमुख प्रकार बताए गए हैं, जबकि कुछ ज्योतिषियों ने इसके लगभग 250 प्रकार भी वर्णित किए हैं। यह दोष जीवन में संघर्ष, अस्थिरता और मानसिक तनाव उत्पन्न कर सकता है।
8. मंगल दोष
यदि किसी जातक की जन्म कुंडली में मंगल प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश भाव में स्थित होता है, तो यह 'मांगलिक दोष' कहलाता है। यह दोष विवाह में देरी, वैवाहिक कलह और जीवनसाथी के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
9. पितृ दोष
यदि कुंडली के नवम भाव में राहु, बुध या शुक्र स्थित हो, तो इसे 'पितृ दोष' माना जाता है। दशम भाव में गुरु की उपस्थिति को भी शापित माना जाता है। यदि जन्मपत्री में सूर्य पर शनि, राहु या केतु की दृष्टि या युति हो, तो जातक पितृ ऋण से प्रभावित होता है। पितृ दोष का प्रभाव जीवन में बाधाएँ, आर्थिक समस्याएँ और संतान संबंधी परेशानियाँ उत्पन्न कर सकता है।
10. विष दोष
यदि कुंडली में चंद्रमा और शनि किसी भी भाव में साथ स्थित होते हैं, तो इसे 'विष योग' कहा जाता है। यह दोष जातक के मानसिक स्वास्थ्य, भावनात्मक स्थिरता और पारिवारिक संबंधों में तनाव उत्पन्न कर सकता है।
11. केन्द्राधिपति दोष
कुंडली के केंद्र भाव (प्रथम, चतुर्थ, सप्तम और दशम) में कुछ ग्रहों की उपस्थिति से यह दोष निर्मित होता है।
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मिथुन और कन्या लग्न की कुंडली में यदि बृहस्पति इन भावों में हो, तो यह दोष बनता है।
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धनु और मीन लग्न की कुंडली में यदि बुध इन भावों में स्थित हो, तो यह दोष उत्पन्न होता है।
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यह दोष बृहस्पति, बुध, शुक्र और चंद्रमा के कारण निर्मित होता है और जातक के भाग्य, शिक्षा तथा सामाजिक प्रतिष्ठा पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है