हाल ही में जयपुर के जंतर मंतर वेधशाला में आयोजित एक खगोल सम्मेलन में भाग लेने का अवसर मिला। वहाँ खड़े होकर जब विशाल यंत्रों के माध्यम से सूर्य की छाया से समय, दिशा और ग्रह स्थिति का अध्ययन देखा — तो अनुभव हुआ कि हमारे पूर्वज केवल आस्थावान नहीं, बल्कि अद्भुत वैज्ञानिक भी थे।
अक्षांश, रेखांश और देशान्तर — यही तीन सूत्र पृथ्वी के हर स्थान की पहचान और समय निर्धारण के आधार हैं।
अक्षांश बताता है कि हम भूमध्य रेखा से उत्तर या दक्षिण दिशा में कहाँ हैं।
रेखांश बताता है कि हम ग्रीनविच (इंग्लैंड) से पूर्व या पश्चिम दिशा में कितनी दूरी पर हैं।
देशान्तर बताता है कि दो स्थानों के बीच समय का अंतर कितना है।
इन्हीं सिद्धांतों से ज्योतिषीय गणनाएँ प्रारंभ होती हैं — सूर्य के उदय-अस्त का समय, लग्न की गणना, ग्रहों की स्थिति — सब कुछ इन्हीं पर आधारित होता है।
जयपुर का अक्षांश लगभग 27° उत्तर है। इसी स्थिति के कारण वहाँ सूर्य की छाया का कोण, दिन की अवधि और ऋतुओं का परिवर्तन अत्यंत सटीक रूप से मापा जा सकता है। यही भारत की उस वैज्ञानिक परंपरा का प्रमाण है, जो हजारों वर्ष पहले दिशा, गति और समय के रहस्यों को जान चुकी थी।
भारत में केवल जयपुर ही नहीं, बल्कि दिल्ली, उज्जैन, वाराणसी और मथुरा की वेधशालाएँ भी इसी अद्भुत खगोल परंपरा की साक्षी हैं।
आज जब आधुनिक विज्ञान फिर से आकाश की ओर झाँक रहा है, तब यह स्मरण करना आवश्यक है कि भारत सदियों से दिशा और काल का ज्ञाता रहा है।
भूगोल दिशा दिखाता है, ज्योतिष समय बताता है — और वेधशाला दोनों का संगम कराती है।
यही भारत की पहचान है — जहाँ आकाश भी पाठशाला है और सूर्य स्वयं शिक्षक।



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