अतिथि देवो भवः: भारतीय संस्कृति में अतिथि सत्कार का महत्व

अतिथि देवो भवः: भारतीय संस्कृति में अतिथि सत्कार का महत्व

अतिथि को देवता मानने की प्रथा

उपनिषद् वाक्य "अतिथि देवो भव" का अर्थ है – "अतिथि देवता के समान होता है।" भारतीय संस्कृति में अतिथि का स्वागत-सत्कार धर्म और कर्तव्य दोनों माना गया है। इसे "अतिथि यज्ञ" कहा गया है, जो पंचमहायज्ञों का एक भाग है। अतिथि के सत्कार से पाप नष्ट होते हैं और सुख, समृद्धि और सौभाग्य बढ़ता है।

अतिथि की परिभाषा

महर्षि शातातप ने अतिथि को परिभाषित करते हुए कहा है:

"जो बिना बुलाए, बिना किसी प्रयोजन के, अचानक घर आए, वह अतिथि होता है।"

जिसके आगमन की सूचना पहले से हो, वह अतिथि नहीं कहलाता।

अतिथि सत्कार का महत्व

वेद और शास्त्रों के अनुसार:

अथर्ववेद (9/7/8):

"जग्धपाप्मा यस्यान्नमश्नन्ति।"

अतिथि सत्कार से व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

अथर्ववेद (9/6):

"अतिविपतिरतिवीन प्रतिपश्यति देवयजनं पेक्षते।"

अतिथि का सत्कार देवताओं को आहुति देने के समान है।

मनुस्मृति (3/106):

गृहस्थ को स्वयं के समान भोजन अतिथि को प्रदान करना चाहिए।

अतिथि सत्कार का धार्मिक प्रभाव

आसन देने से: ब्रह्माजी प्रसन्न होते हैं।

हाथ धुलाने से: भगवान शिव संतुष्ट होते हैं।

पैर धुलाने से: इंद्रादि देवता प्रसन्न होते हैं।

भोजन कराने से: भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं।

अतिथि सत्कार के ऐतिहासिक उदाहरण

राजा मोरध्वज: अतिथि के लिए अपने पुत्र को बलिदान कर दिया।

राजा शिवि: कबूतर की रक्षा के लिए अपना मांस काटकर दिया।

महारानी कुंती: अपने पुत्र भीम को राक्षस के भोजन हेतु भेजा।

कबूतर: व्याघ्र का सत्कार करने के लिए स्वयं का मांस प्रदान किया।

अतिथि सत्कार न करने के दुष्परिणाम

अतिविर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिबर्तते

दत्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति

महाभारत शांतिपर्व 191/12

अर्थात- जिस गृहत्य घर से अतिथि भूखा, प्यासा, निराश होकर वापस लौट जाता है, उस गृहस्थी की कुटुंब संस्था नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है।

गृहस्थ महादुखी हो जाता है, क्योंकि अपना पाप उसे देकर उसका सचित 'पुण्य' वह निराश अतिथि खींच ले जाता है।

अतः सभी को आतिथ्य धर्म का पालन कर अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए।

जिस घर से अतिथि भूखा लौटता है, उस घर की सुख-समृद्धि समाप्त हो जाती है।

गृहस्थ का पुण्य नष्ट हो जाता है, और पाप बढ़ जाता है।

मंत्र और श्लोक

इष्टं वा एष पूर्त गृहाणामश्नाति यः पूर्वोऽतिवेरपनाति।

एप वा अतिथिर्यष्ट्रोत्रियस्तस्मात् पूर्वो नाश्नीयात्

 

-अथववेद 9/81,7अर्थात् जो मनुष्य अतिथि से पहले खाता है, वह घरों का इष्ट सुख और पूर्ण मनोरथ खाता है। यानी नाश करता है। अतिथि श्रोत्रिय, वेद विज्ञान होता है, इसलिए अतिथि के पूर्व भोजन मत करो 

 

अतिथि के भोजन से पहले खाने वाला गृहस्थ अपने घर के सुख-समृद्धि को नष्ट कर देता है।

महाभारत (उद्योग पर्व, 38/2):

"पीठं दत्त्वा साधवेऽभ्यागताय आनीयापः परिनिर्णिज्य पादौ।

सुखं पृष्ट्वा प्रतिवेद्यात्मसंस्थां ततो दद्यादन्नमेक्ष्य धीरः।"

धैर्यवान गृहस्थ को चाहिए कि अतिथि को आसन प्रदान कर, उसके पैर धोएं, कुशल-क्षेम पूछें और उसे भोजन कराएं।

 

"अतिथि देवो भव" भारतीय संस्कृति का आधार है। अतिथि का सत्कार करना केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि मानवता का प्रतीक है। इससे परिवार में सुख, समृद्धि और शांति आती है। अतः इस परंपरा का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का धर्म है।