आजकल तंत्र शब्द बेहद डरावना सा और बदनाम हो चुका है। तंत्र का नाम लेते ही सामान्यतय जनमानस इसके उस स्वरूप की कल्पना कर बैठता है, जिसके कारण बलि प्रथा आदि का सिलसिला प्रारंभ हुआ या, जिसमें निष्कृष्ट पदार्थों एवं आचरण का प्रयोग होता है ।
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यहां हम स्पष्ट करना चाहेंगे व्यवहार में आज जिस प्रकार "तंत्र" के नाम पर अनाचार और क्रूरतम, वीभत्स कृत्य "जैसे मांस, मदिरा, मैथुन आदि पंचमकारों के भौतिक उपयोग" किए जा रहे हैं, उसका वास्तविक तंत्र से कुछ खास लेना देना ही नहीं है। "तंत्र" की किसी भी शास्त्रीय शाखा में बलि आदि क्रियाओं के अनिवार्य उपयोग का वर्णन यथार्थ में नहीं हैं, और ना ही सिद्धियों के लिए निष्कृष्ट पदार्थों का सेवन एवं आचरण करने का अनिवार्य निर्देश कहीं प्राप्त होता है। यह सब तो समाज के निम्न स्तरीय तामसी सोच वाले साधकों में व्याप्त रहा है और कुछ हीन प्रवृति के तामसी साधकों द्वारा निज प्रवर्ती अनुसार उपयोग किया जाता रहा है। अतः तंत्र विद्या को सिर्फ इससे जोड़कर देखना एक भारी भ्रम हैं। पंकृउ ।
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"तंत्र" का असली रहस्य
शास्त्रों में "तंत्र" शब्द की अनेक व्याख्याऐं उपलब्ध हैं, इन व्याख्याओं में भी "तंत्र" के विस्तृत स्वरूप पर ही प्रकाश डाला गया है, इससे यह सही से ज्ञात नहीं होता की तंत्र वास्तव में क्या है और किसके बारे में हैं। इस आलेख को लिखने का हमारा उद्देश्य शास्त्रीय ज्ञान की विद्वता को प्रदर्शित करना कदापि नहीं है। हम तो समाज के जिज्ञासु , तंत्र के आलोचकों एवं इसकी साधना के लिए उत्सुक नवीन साधकों को वास्तविक तंत्र ज्ञान कराने के उद्देश्य से यह आलेख लिख रहे हैं अतः यहाँ इन शास्त्रीय व्याख्याओं में उलझ कर दिग्भ्रमित होना उचित नहीं होगा । मैं सीधे शब्दों में कहना चाहता हूं के तंत्र का क्या अर्थ है और यह किसके बारे में हैं।
वास्तविकता में तो तंत्र का सही अर्थ व्यवस्था से है। इसका सही अर्थ यही है प्रश्न यह उठता है कि यह किस प्रकार की और किसकी व्यवस्था से संबंधित है, मूलतः आध्यात्मिक अर्थ में यह परमात्मा और प्रकृति की गूढ़ व्यवस्था के अर्थ में है, और वैज्ञानिक अर्थ में यह ब्रह्मांड की ऊर्जा व्यवस्था या उसकी ऊर्जा धाराओं के यथार्थ स्वरूप की रचना व्यवस्थाओं के संदर्भ में है। पंकृउ।
आज हमारा समाज "तंत्र" को जिस स्वरुप में जानता है वह इसकी मात्र सिद्धियों के प्रयोग से संबंधित स्वरूप है। वैज्ञानिक रूप में समझें तो तंत्र के प्रायोगिक स्वरूप को ही वास्तविक तंत्र समझा जाता है, परंतु यह प्रायोगिक स्वरूप अलग-अलग सिद्धांतों या सास्वत उद्देश्य पर आधारित नहीं है तंत्र का वास्तविक स्वरूप इसके सैद्धांतिक और प्राकृतिक व्यवस्था के वर्णन में हैं प्रयोग की सभी सिद्धियां प्रकृति के सैद्धांतिक शास्त्र के नियमों पर ही आधारित हैं। ये भी कह सकते हैं कि "तंत्र" तो ब्रह्मांड की तरंग व्यवस्थाओं का ही स्वरूप है।पकृऊ।
उदाहरण देकर समझाएं :-
मान लें हम भैरवी शक्तियों की सिद्धि में से किसी एक सिद्धि का प्रयोग करते हैं तो हमें केवल उस सिद्धि के उस प्रयोग का ही ज्ञान होता है, जिसको सैकड़ों वर्षो से "तंत्र" गुरु इसके केवल उसी स्वरूप की परंपरा को लकीर के फकीर जैसे ढोए जा रहे हैं, यह ठीक ऐसा ही है, जैसे एक मैकेनिक किसी विशिष्ट क्षेत्र की प्रैक्टिस कर लेता है उसे कैसे क्यों से मतलब नहीं होता। वस्तुत: इसमें कोई मौलिक तंत्र ज्ञान है ही नहीं, बस आप केवल यह जान जाते हैं कि यदि आप ऐसा करें तो इसका ऐसा फल प्राप्त हो सकता है, यह एक अंधी दौड़ है आपको ऐसी दौड़ में प्रत्येक कदम पर गुरु की आवश्यकता होगी, और सफलता प्राप्त करके भी, भले ही शक्ति की कोई एक सिद्धि "तरंग" आपको प्राप्त हो भी जाए परंतु तंत्र के मूल स्वरूप का ज्ञान कदापि नहीं हो पाएगा।
तंत्र तो वह शास्त्र है जो हमें यह बताता है कि इस प्रकृति को किसने क्यों और किस प्रकार उत्पन्न किया इसमें सृष्टि की उत्पत्ति के प्राथमिक उद्भव से लेकर ब्रह्मांड के विकास तक की समस्त प्रक्रिया समझाई जाती है। यह वह शास्त्र है जो हमें बताता है कि हम जिसे उर्जा कहते हैं वह क्या है और किस प्रकार निर्मित एवं विकसित होती है एवं उसे शक्ति के अन्य स्वरूपों में कैसे परिवर्तित किया जा सकता है। पंकृउ ।
यह हमें बताता है कि सर्वप्रथम कैसे एक नन्हा सा त्रगुण ऊर्जा बिंदुओ से युक्त परमाणु उत्पन्न हुआ और किस प्रकार यह "वामनावतार" विशालकाय ब्रह्मांड के स्वरूप में प्रत्यक्ष हो सका, एवं कैसे ये नन्हा सा परमाणु भी विकास व विनाश की असीमित शक्ती को धारण किये रहता है।
तंत्र की सिद्धियों का शास्त्र प्रकृति के सैद्धांतिक ज्ञान पर ही आधारित है। जो इसके सिद्धांत स्वरूप का ज्ञान रखता है वह चाहे तो सिद्धियों के लिए नए प्रायोगिक मार्ग तलाश सकता है, नई सिद्धियों की भी खोज कर सकता है, जिन्हें तंत्र के सैद्धान्तिक स्वरूप का ज्ञान नहीं है वह केवल उन्हीं प्रयोग या सिद्धियों तक सीमित रहते हैं, जिसका ज्ञान उन्हें गुरु द्वारा प्रदत्त होता रहता है। न तो उन्हें तंत्र विज्ञान के मूल स्वरूप का ज्ञान हो पाता है और ना ही वह इसके उद्देश्य या वास्तविक के उपयोग के बारे में कुछ जान पाते हैं।
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वास्तविकता तो यह है कि भारतीय प्राचीन "तंत्र-शास्त्र" तो परमाणु, तरंग-विज्ञान एवं ऊर्जा विज्ञान का एक विशाल भंडार है। यह तो इस देश का दुर्भाग्य है कि आधुनिक विज्ञान के प्रति अंदर से अंधश्रद्धा के शिकार वैज्ञानिकों ने अपने प्राचीन ज्ञान विज्ञान पर ध्यान ही नहीं दिया और जो धार्मिक साधक भी अंधश्रद्धा के शिकार हैं वह इसकी मामूली सिद्धियों के स्वरूप, एवं टोने-टोटके में ही उलझ कर रह गए हैं, वास्तविक तंत्र स्वरूप को समझे ही नहीं हैं।
आगे हम "औघड़ "तंत्र" विज्ञान के रहस्य" आलेखों के सीरियल में यानि अन्य भागों में तंत्र विद्या के समग्र स्वरूप का वर्णन करते रहेंगे एवं अति गोपनीय सिद्धियों से लेकर सामान्य सरल सिद्धियों तक का विधिवत ज्ञान देते रहेंगे । हमारे "आने वाले आलेख" तंत्र की पद्धतियों एवं उनकी साधनाओं के रहस्यों से संबंधित दुर्लभ जानकारियां उपलब्ध कराते रहेंगे। हमारे आगे के आलेखों में "तंत्र" के शास्त्रीय वर्णन ही नहीं होंगे अपितु तंत्र विद्या के गोपनीय सिद्ध साधकों से प्राप्त सिद्धियों के मूल स्वरूप का वर्णन भी होगा यह भी बताया जाएगा के "तंत्र" की सिद्धि साधना में की जाने वाली कुछ अनिवार्य क्रियाओं के रहस्य क्या है, और उनके पीछे कौन सी शक्ति कार्य करती हैं और कैसे करती हैं। इन सभी जानकारियों के लिए आप हमारे इस आलेख श्रंखला के अगले भागों को पढ़ते रहें। सभी पढ़े-लिखे विद्वान स्त्री-पुरुष इस ओर ध्यान देकर इसके विकास में अपने मस्तिष्क का प्रयोग करेंगे, यह तो सोचना भी भ्रम है कि तंत्र की क्रियाएं हमेशा क्रूर डरावनी एवं निकृष्ट स्वरूप की ही होती हैं और हमारी मातृ शक्ति "स्त्रियों" को इस संबंध में जानना या इन सिद्धियों को करना ही नहीं चाहिए। पंकृउ।
इसके लिए तो इतना ही कहा है कि विशेषकर गृहस्थ स्त्रियों के लिए केवल कुछ साधनाएं वर्जित हैं साधिकाओं के लिए तो यहाँ तक कहा गया है कि वह पुरुषों की अपेक्षा शीध्र एवं सशक्त रूप से सिद्धियां प्राप्त कर सकती हैं। औघड़ तंत्र विज्ञान का प्रयोग व साधना स्त्री पुरुष दोनों ही उचित मार्गदर्शन में करने के अधिकारी हैं।
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